________________ (190) पंच परमेष्ठी का चतुर्थ पद-उपाध्याय आस्रव द्वारों को अवरूद्ध करके तथा मन-वचन-काया के योगों को वश करके जिन्होंने विधिपूर्वक स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु, पद और अक्षर द्वारा विशुद्ध ऐसे द्वादशांग श्रुत का अध्ययन किया है, एवं अध्यापन कराते हैं तथा उसके द्वारा स्व-पर के मोक्ष के उपायों को ध्याते हैं वे उपाध्याय हैं। चिरपरिचित ऐसे द्वादशांग श्रुतज्ञान को जो अनन्त गमपर्यय द्वारा चिन्तन करते हैं, पुनः पुनः स्मरण करते हैं और एकाग्र मन से ध्यान करते हैं, वे उपाध्याय हैं। उपाध्याय अर्थात् साधुओं को शास्त्रों का अभ्यास कराने वाले। शास्त्रकारों ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-"उप समीपे अधिवसनात् श्रुतस्य अयो-लाभो भवति येभ्यस्ते उपाध्यायाः"- जिनके पास रहने से श्रुत का लाभ हो वे उपाध्याय कहलाते हैं। __ नियमसार में उल्लेख है कि "वे रत्नत्रय से संयुक्त जिन कथित पदार्थों के शुरवीर उपदेशक और नि:कांक्षित भाव सहित हैं। मूलाराधना में व्याख्या है "बारह अंग चौदहपूर्व जो जिनदेव ने कहे हैं, उनको पंडित जन स्वाध्याय कहते हैं। वे इन स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, अतः उपाध्याय है।" धवला में इसे स्पष्ट किया है कि जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित है, तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। राजवार्तिक', सवार्थसिद्धि भगवती आराधना में इसी प्रकार का कथन किया गया है। पुनः धवलाकार उल्लेख करते हैं कि "चौदह विद्यास्थानों के व्याख्यान करने वाले अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय हैं। वे संग्रह, अनुग्रह आदिगुणों को छोड़कर पूर्वकथित आचार्य के समस्त गुणों से युक्त होते हैं।९ 1. महानिशीथ 2. महानिशीथ 3. सन्दर्भः नमस्कार महामंत्र-भद्रंकर विजय मुनि पृ. 14 4. नियमसार-७४, द्रव्यसंग्रह 53 5. मूलाराधना 511, आवय नि. 1001 6.1. (धवला 1.1,1,1.50.1) धवला 1.1, 1, 1.3250 7. राजवार्तिक 9.24.4.62.13. 8. सर्वार्थसिद्धि 9.24.44.2.7 भगवती आराधना 46.154.20 9. धवला 1.1,1,1.50.1