________________ (176) (6) विद्यावान प्रभावक-ये प्रभावक विद्या-मंत्र आदि में निपुण होते हैं। शासन की प्रभावना के अवसर पर विद्याओं का प्रयोग करके प्रभावकता को प्रगट करते हैं। (7) सिद्ध प्रभावक-ये प्रभावक अनेक सिद्धियों के धारक सिद्धपुरुष होते हैं। शासन प्रभावना के प्रसंग पड़ने पर ही सिद्धियों का प्रयोग करते हैं। (8) कवि प्रभावक-ये प्रभावक अपनी कवित्व शक्ति के द्वारा विशिष्ट प्रकार के काव्य (श्लोकादि की रचना) का निर्माण करते हैं। जिसके माध्यम से राजा, मंत्री आदि अन्य लोगों को प्रभावित करके शासन की प्रभावना करते हैं। - इस प्रकार ये आठ प्रभावक कहे गये हैं। उपाध्याय यशोविजय जी म. फरमाते है कि-जिस काल में ऐसे महान् शासन प्रभावक नहीं होते हैं, तब शास्त्रोक्त विधि विधान से यात्रा पूजादि धर्मानुष्ठानादि धर्म कार्यों में प्रवृत्त कराने वाले ही प्रभावक कहलाते हैं। (2) आचार की विशुद्धि (क) पंचाचार की स्वयं परिपालना-आचार्य परमेष्ठी में आचार की विशुद्धि उत्कृष्ट कोटि की होती है। उनका आचारण इतना प्रशंस्य होता है कि वह जगत् के लिए अनुकरणीय हो जाता है। वे अणिशुद्ध पंचाचार की स्वयं परिपालना करते हैं। यदि वे स्वयं आचरण न करे तो जगत् को आचरण की शुद्धता का उपदेश भी कैसे दें? वास्तव में वे जगत् को उपदेश देने हेतु ही आचरण की परिपालना नहीं करते, वरन् स्वकल्याण को लक्ष्य में रखकर आत्मश्रेय हेतु कर्म निर्जरा करने के लिए करते हैं। उनकी परिपालना को देखकर ही संघ उनको आचार्य पद पर आरूढ़ करता है। यह परिपालना ही उनको संघ का नियामक बना देती है। अतः आचार्य परमेष्ठी का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वे पंचाचार की परिपालना सुन्दर रीति से करें। (ख) संघ द्वारा पालन हेतु पुरुषार्थ-जिन पंचाचारों की परिपालना आचार्य परमेष्ठी स्वयं करते हैं, वे संघ को इनकी प्रतिपालना के लिए प्रवृत्त करते हैं / आचार्यजी का पुरुषार्थ भी इसी दिशा में प्रवहमान होता है, कि सम्पूर्ण संघ पंचाचारों के पालन में उद्यत रहे। उनका आचरण, सद्बोध, प्रवचन, ज्ञान, व्यवहार सर्व कार्यों में वे आचार की शुद्धता का विशेष लक्ष्य रखते हैं। इस हेतु