________________ (158) पंच परमेष्ठी का तृतीयपद-आचार्य आचार्य की अवधारणा अनंतज्ञानी तीर्थङ्कर परमात्मा ने चतुर्विध संघ-तीर्थ की स्थापना करके विश्व पर एक अनन्य श्रेष्ठ उपकार किया है। साथ ही दूसरा उपकार अर्हत् परमात्मा ने यह किया कि उन्होंने अपनी उपस्थिति में ही अपने उत्तराधिकारी को भी गौरवास्पद पद प्रदान किया। आसन्न उपकारी चरम तीर्थपति प्रभु महावीर ने स्वहस्त से एकादश ब्राह्मण-पंडितों को गणधरपद पर स्थापित किया। इससे संघ को महान् लाभ यह हुआ कि अर्हत् प्रभु की अनुपस्थिति में श्रीसंघ-शासन को सफल नेतृत्व वहन करने वाले की शोध करने की कोई चिन्ता न हुई। इसी प्रकार गणधर भगवन्तों के पश्चात् भी आचार्यों की पट्टपंरपरा इस प्रकार चलती रही कि उनसे संलग्न सम्पूर्ण विवाद-क्लेशादि निरवकाश बन गये। आचार्य पद की सर्वोपरि महत्ता तो यह दृष्टिगोचर होती है कि स्वयं तीर्थङ्कर परमात्मा ने अपने कर कमलों से वासक्षेप (चंदन का चूर्ण)-करके अपने उत्तराधिकारी के प्रति शंका-कुशंका-अविश्वास करने को स्थान ही न रखा। अपनी उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति में सकल संघ को उनके आज्ञांकित रहने का स्पष्ट फरमान दिया। इस प्रकार के उद्घोष द्वारा भी आचार्यपद को गौरवान्वित किया। इससे यही फलीभूत होता है कि आचार्य परमेष्ठी जैन शासन के सफल नेता है। कुशल सुकानी है। धर्मरथ के सारथि है। शासन-धर्म की रक्षा एवं प्रभावना करने में सदा अप्रमत्त एवं तत्पर हैं। ज्ञान के बिना यह सब शक्य कैसे हो? अतः वे वर्तमान समस्त श्रुत के पारगामी होते है। वे भव्यजीवों को करुणाबुद्धि से धर्मोपदेश देते हैं। इस प्रकार सकल संघ में जिनशासन के समद्धज्ञान एवं आचार की, जैनत्व से ओतप्रोत शुभ संस्कारों की, वसीहत की सुरक्षा करने वाले, वृद्धि करने वाले हैं। इस प्रकार वे जैन शासन के प्रभावक, प्रचारक एवं धर्मोपदेशक है। ___ आचार्य श्रमण संघ के जीते, जागते सजग प्रहरी हैं। उनके बलिष्ठ व वरिष्ठ स्कन्धों पर संघ का उत्तरदायित्व होता है। जैसे सघन अंधकार को सूर्य की चमचमाती रश्मियाँ नष्ट कर देती हैं, इसी तरह श्रुत, शील और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य संघ को सदुपदेश एवं ज्ञानदान से अज्ञान अंधकार को नष्ट कर सूर्य की