________________ (163) और साधन-व्रतों की रक्षा करने वाली क्रियाओं में निरंतर उद्युक्त हैं, उनको आचार्य समझना चाहिए। __उक्त व्युत्पत्ति परक किये गये अर्थों से स्पष्ट होता है कि जो सूत्र एवं अर्थ के स्वयं ज्ञाता है तथा अन्यों को उसका उपदेश देते हैं। गच्छ के आलम्बनभूत हैं, पचांचार को स्वयं पालते हैं तथा अन्यों से आचरण करवाते हैं। अट्ठारह हजार शीलांग के धारक, आचार के प्रवर्तक, पापाचरण से रहित, आरम्भ-समारंभ की अनुज्ञा रहित, चौदह विद्याओं में पारंगत, ग्यारह अंग के धारक, सिद्धान्त में पारंगत, लक्षण एवं गुणों से युक्त, संघ के नाक, संघ के नियामक हैं वे आचार्य कहे जाते हैं। उक्त लक्षणों से युक्त आचार्य नित्य अप्रमत्तरूप से धर्मोपदेश देते हैं, विकथा के त्यागी होते हैं तथा देश-काल में उचित भिन्न-भिन्न प्रकार के उपायों के द्वारा शिष्यों को प्रवचन देते हैं। आचार्य की पर्यायें : आचार्य की अन्य पर्यायें हैं-सूरि, गणधर, गणी, गच्छधारी, अनूचान, प्रवचनधर, भट्टारक, भगवान् महामुनि, सद्गुरु, श्रुतधर, पटधारी, गच्छथंभ' आदि। स्वरूप : लौकिक-धार्मिक सामान्यतया लोक में शिक्षण आदि कार्यों का संचालन, अध्यापन आदि कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं। पूर्व में हम आचार्य के दिये गये अर्थों पर दृष्टिपात करते हैं, तो सर्वत्र अध्ययन-अध्यापन आदि शिक्षण कार्यों को करने वालों को आचार्य कहा है। यद्यपि आचार्य गोत्र के धारक भी आचार्य अभिधान को अंगीकार करते हैं। किन्तु अधिकांशतः आचार्य शिक्षण क्षेत्र से ही संयुक्त होते हैं। इस प्रकार शिक्षक के स्वरूप में आचार्य का विभाजन हम दो प्रकार से कर सकते हैं 1. लौकिक 2. धार्मिक लौकिक-लोक में प्रचलित व्यवहारों आदि का ज्ञान करावे उसे लौकिक कहा जाता है। यहाँ हम लौकिक संज्ञा उनको देंगे जो धार्मिकता से परे हैं अर्थात् अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों का ज्ञान न कराकर अन्य प्रकार का ज्ञान देते हैं। यथा-कला, विद्या, शिल्प आदि पुरुषों की 72 कलाएँ तथा स्त्रियों की 64 कलाएँ 1. विशेषा. भाष्य 3189-993