________________ (170) (घ) आचार्य के गुण आचार्य का जीवन सद्गुणो का आगार है। तीर्थङ्कर देव की अनुपस्थिति में आचार्य ही शासन के आधार स्तम्भ हैं। उनके सिवा अन्य कोई तारणहार नहीं है। वे गुणगण के भण्डार है। वे उत्तम गुणों से सुशोभित होते हैं, वे 36 हैं। आचार्य महाराज के 36 गुण हैं। इन 36 गुणों की एक छत्तीसी, ऐसी 36 छत्तीसियों का उल्लेख शास्त्रों में वर्णित हैं। तात्पर्य यह है कि 36 प्रकार से 36-36 गुणों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार गुण प्रकारान्तर से उपलब्ध होते हैं। छत्तीसी (सामान्यतया प्राप्त) 1. प्रतिरूपगुण 2. सूर्यवत्तेजस्वी 3. युगप्रधानागम 4. मधुरवाक्य 5. गाम्भीर्य 6. धैर्य 7. उपदेशदान 8. अपरिश्रावि 9. सौम्यप्रकृति 10. शील 11. अपरिग्रह 12. अविकथक 13. अचपल 14. प्रसन्नवदन 15. क्षमा 16. ऋजु 17. मृदु 18. सर्वसंगविमुक्ति 19. द्वादशविधतपोगुण 20. सप्तदशविधसंयम 21. सत्यव्रत 22. शौच 23. आकिंचन्य 24. ब्रह्मचर्य 25. अनित्यभावना 26. अशरणभावना 27. संसारस्वरूप 28. एकत्वभावना 29. अन्यत्वभावना 30. अशुचित्वभावना 31. आस्रवभावना 32. संवरभावना 33. निर्जराभावना 34. लोकस्वरूप 35. बोधिदुर्लभ 36. धर्मदुर्लभ भावना। अन्य इसी प्रकार की 35 छत्तीसियाँ हैं। 3. संघ नेतृत्व जैसा कि पूर्व में उल्लिखित है कि अर्हत् परमात्मा ने चतुर्विध संघ की स्थापना की है। और स्वयं तीर्थङ्कर परमात्मा ने संघ नेतृत्व हेतु गणधरों को उत्तराधिकारी बनाया। गणधर भगवन्त के पश्चात् आचार्यों की पट्टपरम्परा अद्यापि चलती रही। इससे स्पष्ट होता है कि आचार्य भगवन्त संघ का सफल नेतृत्व करते हैं। वे ही शासन की बागडोर को थाम कर शासन को उन्नत बनाते हैं। जिस संघ के आचार्य नेता हैं, वह 'संघ' क्या है? संघ किसे कहा जाये? आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशक' में 'संघ' शब्द का अर्थ किया हैगण समुदाओ संघो पवयण तित्थं ति होंति एगट्ठा / तित्थगरो विय एणं णमए गुरुभावतो चेव। 1. पंचाशक 8.39