________________ (173) सम्यग्ज्ञान से उजागर, उपशम प्रधान सूर्य के सदृश संघ है। संघसमुद्र समुद्र की भांति वह संघ घृति अर्थात् मूलगुण तथा उत्तर गुणों से वृद्धिंगत आत्मिक परिणाम रूप बढ़ते हुए जल की वेला से परिव्याप्त है। जिसमें स्वाध्याय और शुभ योग रूपी मगरमच्छ हैं। जो कर्मविदारण में महाशक्तिशाली है और परीषह, उपसर्ग होने पर भी निष्कंप-निश्चल है तथा समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं विस्तृत है। इस प्रकार समुद्र के तुल्य संघ है। संघमहामन्दर मेरू के समान संघ की भूपीठिका सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठवज्रमय है अर्थात् वज्रनिर्मित है। तत्त्वार्थ श्रद्धान मय सम्यग्दर्शन युक्त उसमें सुदृढ़ आधारशिला है। वह शंकादि दूषण रूप विवरों से रहित है। विशुद्ध अध्यवसायों से चिरंतन है। तीव्र तत्त्व विषयक अभिरूचि होने से ठोस है। नवतत्त्व एवं षड्द्रव्यों में निमग्न होने से गहरा है। उसमें उत्तर गुण रूप रत्न एवं मूलगुण-रूप स्वर्णमेखला है। इस प्रकार नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र तथा मेरू इन सर्व में जो विशिष्ट गुण समाहित हैं तदनुरूप श्री संघ में भी अलौकिक दिव्यगुण हैं। संघ अनन्तानंत गुणों का आकर है, अतः इन विशिष्ट उपमाओं से उसे उपमित किया गया है। संघ शब्द का अर्थ (अ) संघ शब्द का अर्थ जैनागमों में संघात', गुणसंघात', समुदाय, कीटिकादिगण समुदाय अर्थ में, कुल समुदाय गण' कहलाता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिसमुचित प्राणिगण में साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका रूप भी संघ कहलाता है। शब्दार्थ से यह तो स्पष्टतया प्रतीत होता है कि संघ शब्द का व्यवहार समुदाय या समूह से किया जाता है। किन्तु जैन धर्म में संघ का तात्पर्य विशेष अर्थ से संबंध रखता है। यहाँ संघ का अर्थ भी है तो समूहात्मक ही। किन्तु 1. व्यवहार सू. 3 उ. 2. वही 3. जी. 3 प्रति, 4 अधि, प्र. 4. ठा. 5 1 उ. 5. पं व. 1. द्वार