________________ (166) 4. अचंचलगुण-मनोहर-दिव्य रूप सम्पदा के धारक होने पर भी निर्विकारी, सौम्यमुद्रा वाले होते हैं। तन से युवक और नवदीक्षित होने पर भी वे वयोवृद्ध की भांति गंभीर होते हैं। तथा ज्येष्ठ व श्रेष्ठ श्रमणों के समान संयम नियम में जागृत रहते हैं।' इस प्रकार आचार सम्पदा के आचार्य प्रतिपालक होते हैं। 2. श्रुत सम्पदा आचार्य बहुश्रुत होते हैं। शास्त्रों के अर्थ-परमार्थ के ज्ञाता होते हैं। आगम साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, लोकव्यवहार आदि में व्यापक ज्ञानयुक्त होते हैं। जड़-चेतन के भेदज्ञान, आत्मा-परमात्मा के तलस्पर्शी ज्ञान से जनमानस को मंत्रमुग्ध कर दते हैं। यह श्रुत संपदा चार प्रकार की है 1. युगप्रधान-सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं विद्वानों में श्रेष्ठ होने से युगप्रधान होते हैं। 2. आगमपरिचित-शास्त्रीय ज्ञान की परिवर्तना करते रहने से निश्चल ज्ञानी होते है। 3.उत्सर्ग अपवाद कसला-कदापि किंचिन्मात्र दोष न लगावे-वह उत्सर्गमार्ग और अनिवार्य कारण होने से पश्चाताप युक्त होकर शुद्ध हो जावे वह अपवाद मार्ग, इस प्रकार दोनों मार्ग के यथातथ्य ज्ञाता होते हैं। 4. ससमय-परसमय दक्खे-स्वसमय (जैन सिद्धान्त) पर समय (जैनेतर दर्शन के सिद्धान्त) के शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञान का अनुशीलन करके वे आदि से अंत तक और अंत से आदि तक धाराप्रवाह रूप से सूत्र का वांचन करते हैं। उनका उच्चारण पूर्ण शुद्ध होता है। 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' युक्त उनकी वाणी होती है। 3 शरीर सपंदा आचार्य का शरीर सर्वांग सुंदर सुदर्शन और स्वस्थ होता है। इस संपदा के भी चार प्रकार हैं 1. प्रमाणोपेत-अपने माप से अपना शरीर एक धनुष्य लम्बा हो। 2. अकुटई-लंगडा, लूला, काणा या 19 या 21 अंगुलियों वाला इत्यादि अपंग दोष से रहित होना। 1. दशाश्रुतस्कंधा-४.१ 2. दशा. 4.2