________________ (164) कही गई है, इन कलाओं का जो ज्ञान करवाता है, वह लौकिक आचार्य है। साथ लोकभोग्य सामग्री को उपलब्ध कराने के लिए, विघ्नों के नाश के लिए ग्रह शान्ति आदि के लिए जो मंत्र, तंत्र विद्या के आश्रय से उपाय करते हैं, वे भी लौकिक संज्ञा के अंतर्गत आते हैं। इसके अतिरिक्त शिल्प, कृषि, वाणिज्य, विज्ञान आदि का समावेश भी लौकिक के अन्तर्गत हो जाता है। तात्पर्य यह है कि धार्मिक शिक्षण के अतिरिक्त जो भी शिक्षा दी जाती है, वह लौकिक कही जाती है। उसके प्रदाता लौकिक आचार्य है। प्रिन्सिपल, द्रोणाचार्य सैन्य का सरदार, आयुर्वेद-विद्यालय की पदवी आदि इसके उदाहरण हैं। . धार्मिक-जो धर्म के सिद्धान्तों, उनके आचार-विचारों का ज्ञान कराते हैं, उनका आचरण करवाते हैं, वे धार्मिक आचार्य हैं। इनका विभाजन भी दो प्रकार से किया जा सकता है1. अजैन (जैनेतर) 2. जैन अजैन-जैन धर्म के अतिरिक्त जो अंग और रहस्य सहित वेद, धर्मशास्त्र का अध्ययन कराते हैं। इस प्रकार धर्मक्रिया कराने वाले ब्राह्मण, पुरोहित गोरजी महाराज भी इसके अन्तर्गत आते हैं। इसी में ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषद् इन प्रस्थानत्रयी के भाष्यकारों का भी समावेश होता। मंत्रोपदेशक धर्मगुरु, संप्रदाय चलानेवाला धर्माध्यक्ष, मतप्रवर्तक, विद्वान, पंडित, शास्त्र या मत के अभ्यासी, वेद के टीकाकार आदि इसी गणना में सम्मिलित हैं। तात्पर्य यह है कि मात्र जैन के अतिरिक्त दुनियाँ के सर्व धर्मों, उनके प्रवर्तक, आचार्यों को यहाँ समाविष्ट किया जा सकता है। जैन-जैनेतर धर्मों की भांति जैनधर्म में भी धर्मोपदेशक को आचार्य कहा गया है। किन्तु जैनाचार्य की अन्य धर्माचार्यों से भिन्नता है। यहाँ आचार्य पद का वाहक विशेष गुण एवं लक्षणों से युक्त कहा गया है। वे किसी मत या संस्था के प्रवर्तक नहीं किन्तु अर्हत् परमेष्ठी द्वारा प्ररूपित धर्म का प्रतिनिधि मात्र है। उनकी अनुपस्थिति में वे ही संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वयं किसी सिद्धान्त की प्ररूपणा नहीं करते वरन् निदष्ट आचारों का पालन करते हैं तथा समीपस्थ को भी उनका आचरण करवाते हैं। जैन परंपरा में आचार्य चार प्रकार के हैं1. नाम 2. स्थापना 3. द्रव्य 4. भाव