________________ (162) 'जिनमार्ग को न जानने वाले, अन्यों के प्राणहरण करने वाले तथा प्रहार करने वाले जीवों के प्रति पाप-फल को जानने वाले (आचार्य) पापाचरण नहीं करते।' प्राण जाय तो भी पृथ्वीकायिक आदि जीवों का जो आरंभ-समारंभ करते नहीं और उसकी अनुज्ञा भी देते नहीं, वे आचार्य हैं। (9) अथवा सुट्ठ अवरूद्धे वि न कस्सइ मणसा वि पावमायरति त्ति आयरिया' किसी ने बहुतु अपराध किया हो, तो भी उस पर मन से भी अहितकारी आचरण करते नहीं वे आचार्य कहलाते हैं। (10) अथवा चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः। आचारङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसमय-परसमयपारगो वा मेरूरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुं सागर इव बहिक्षिप्तमल- सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः। जो चौदह विद्याओं में पारंगत हो, ग्यारह अंग के धारक अथवा आचाराङ्ग मात्र को धारण करते हो, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परमसय में पारगंत हो, मेरू समान निश्चल, पृथ्वी के सदृश सहनशील हो, जिन्होने समुद्र के समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो एवं सप्त भयों से रहित हो उनको आचार्य कहा जाता है। (1) पवयण जलहिजलोयरणहायामलबुद्धिसुद्धछावासो। मेरुव्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो-वज्जो। देसकुलजाइसुद्धो, सोभंगो संगभंगउम्मुक्को। गयण व्व णिरुवलेवो, आइरियो एरिसो होई॥ संगह-णिग्गहकुसलो, सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती। सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आइरियो॥ प्रवचन रूपी समुद्र के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से षडावश्यकों का पालन करते हैं, मेरू के समान निष्कंप है, सिंह की भांति शूरवीर निर्भीक हैं, वर्य अर्थात श्रेष्ठ हैं। देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं। सौम्य मूर्ति हैं, अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं। आकाश के समान निर्लेप हैं। जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रहशिक्षा अथवा प्रायश्चित देने में कुशल हैं। जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैली है। जो सारणक-आचरण, वारण-निषेध, 1. वही. 2. षटखण्डागम 1.1,1,1.48.8 3. षटखण्डागम 111, 1 गा. 29-30-31