________________ (161) -ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रचार, तपाचार, वीर्याचार, ये पांच प्रकार के आचार हैं। मर्यादापूर्वक जो विहार किया जाय उसे आचार कहते हैं। आचारों को जो स्वयं पालते हैं, अर्थ से उपदेश करते हैं तथा क्रिया से अन्यों को करके दिखाते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। कहा है कि-'पांच प्रकार के आचारों को पालते हैं, उनका अर्थ कहते तथा (पडिलेहण आदि क्रिया द्वारा)' आचार के दर्शाने से आचार्य कहलाते हैं। (4) अथवा 'आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः चारा-हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः, युक्तायुक्त विभाग निरूपणनिपुणा विनेयाः, अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्याः, चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात्" - आ + चार अर्थात् योग्य-अयोग्य का विलाग करने में निपुण शिष्यों को शास्त्र का अर्थ यथावत् बताते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। यहाँ आचार के उपदेशक होने के कारण उपकारी होने से उनको आचार्य कहा गया है। (5) अथवा 'अट्ठारससीलंगसहस्साहिट्ठियतणू छत्तीसइविहमायारं जहट्ठियमगिलाए अहन्नसाणुसमयं आयरंति पवत्तयंति आयरिया'२ अट्ठारह हजार शीलांग को धारण करने वाले, छत्तीस प्रकार के आचार को यथास्थिति से ग्लानि रहित रात और दिन प्रतिसमय जो आचरण करते हैं और प्रवर्तन करते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। (6) अथवा 'नाणाई छत्तीसं तस्सायरणा पयासणो अ। * . जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य॥२ -ज्ञानादि छत्तीस वस्तुओं का आचरण करने से साथ ही उपदेशक होने से भाव आचार से युक्त होते हैं, वे भावाचार्य कहलाते हैं। ___(7) अथवा परमप्पणो अ हियमायरंति वा आयरिया, सव्वसत्ते सीसगणाण वा हियमायरंति आयरिया पर एवं स्व के हित को आचरते हैं तथा सर्व जीव एवं शिष्य समुदाय का हित आचरते हैं अतः आचार्य कहलाते हैं। (8) अथवा 'जिणपहअपंडियआणं पाणहराणं पि पहरमाणाणं। न करती पावाइं पावस्स फलं वियाणता॥' पाणपरिच्चाएऽवि पुढवाईणं समारंभ नायरंति नारभंति नाणुजाणंति वा आयरिया 1. भग. शत. 1. उ. 1 2. महानिशीथ 3 अध्याय पृ. 3. आव. नि. गा. 995. 4. महानिशीथ 3 अध्या. पृ. 282-1 से 283-3 5. महानिशीथ सूत्र 3 अध्या. पृ. 282-1 से 283-3