________________ (39) शम्भुं स्वयम्भूर्भगवान् जगत्प्रभुस्त्रीर्थङ्करस्तीर्थकरो जिनेश्वरः।। स्याद्वाद्यमयपदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ। देवाधिदेव बोधिद पुरुषोत्तम वीतरागाप्ताः। अर्हत् 1, जिन 2, पारगत 3, त्रिकालवित् 4, क्षीणाष्टकर्मा 5, परमेष्ठी 6, अधीश्वर 7, शम्भु 8, स्वयंभू भगवान् 10, जगत्प्रभु 11, तीर्थंकर 12, तीर्थंकर 13, जिनेश्वर 14, स्याद्वादी 15, अभयपद 16, सार्वा 17, सर्वज्ञ 18, सर्वदर्शी 19, केवली 20, देवाधिदेव 21, बोधिद 22, पुरुषोत्तम 23, वीतराग 24, आप्त 25 / इस प्रकार ये 25 अभिघान (नाम) अर्हत् से अभिप्रेत किये हैं। प्राचीनतम शिलालेखों में यथा उड़ीसा के खारवेल सम्राट के शिलालेख में भी अर्हत् पद ही उद्धृत किया हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि अर्हत् पद की प्रतिष्ठा प्रथमतः हुई। इस प्रकार इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि अन्य पर्यायों की अपेक्षा अर्हत् पद सर्वप्रथम प्रकाश में आया। अन्य पर्यायें समयानुसार विकसित हुई। हिन्दु, जैन, बौद्ध परम्परा में समान रूप से अर्हत् पद प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि सभी ने अपनी अपनी मान्यतानुसार इसकी प्ररूपणा की है, फिर भी शब्दतः सभी ने इसे स्थान दिया है। ऐतिहासिकता की अपेक्षा अध्ययन किया जाये तो यह तथ्य उजागर होता है कि उस काल में 'अर्हत्' पद की प्रतिष्ठा समान रूप से थी। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत सभी धर्मों ने इसको स्वीकार कर इसके माहात्म्य को दर्शाया है। पूजार्थक, पूजनीय आदि अनेकानेक धातुएँ होने पर भी अर्ह धातु से निष्पन्न इस पद को सर्व सामान्य के लिए स्वीकार नहीं किया गया। मात्र उपास्य जो कि परमात्म स्वरूप हैं, उनके लिए ही यह पद निर्धारित किया गया हो, ऐसा दृष्टिगत होता है। अर्हत् परमेष्ठी : आगमिक सर्वेक्षण विविध जैनागमों में निर्दिष्ट अर्हत् परमेष्ठी विषयक तथ्यों का पर्यालोचन करें। यहाँ हम संक्षेप में विविधता में समग्रता के साथ उन तथ्यों का सर्वेक्षण करेंगे। 1. अभिधान चिन्तामणि 23-24