________________ (130) अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है? इसका समाधान किया है-ऐसा नहीं होता। क्यों कि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता वे शरीरधारी है इसलिए अर्हत् के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की (अर्थात् उनके कार्य की) सिद्धि हो जाती है। __पुनः शंका होती है कि कर्मों का कार्य तो चौरासीलाख जीवयोनिरूप जन्म, जरा, मरण युक्त संसार है। वह अघातिया कर्मों के रहने पर अर्हत् परमेष्ठी में नहीं पाया जाता। तथा अघातिया कर्म आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात करने में भी समर्थ नहीं है। इसलिए अर्हत् व सिद्ध में गुणकृत भेद उपयुक्त नहीं है? इसका समाधान करते हैं कि जीव का उर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय और सुखगुण का प्रतिबन्धक वेदनीय कर्म का उदय अहँतों के पाया जाता है, इसलिए दोनों में गुणकृत, भेद मानना चाहिए। ___ इस प्रकार अर्हत् व सिद्ध में कर्मकृत् कथंचित् भिन्नता है। सलेपत्व एवं निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेद की अपेक्षा से दोनों अर्हत् एवं सिद्ध परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है। जो कि घाती एवं अघाती कर्मों के कारण ही है। अवतार-ईश्वर से भिन्न सिद्धात्मा अवतार-ईश्वर के स्वरूप से सिद्ध का स्वरूप पूर्णरूपेण भिन्न है। यह भिन्नत्व किस आधार से है? अब हम उसकी विवेचना करेंगे 1. ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, रचयिता मान्य किया जाता है, जबकि जैन परम्परा उसे सर्जक कदापि मान्य नहीं करती। वे ईश्वर के रूप में उसे एक ही स्वीकार करते हैं। वही ईश्वर अधर्म का नाश एवं धर्म के अभ्युदय के लिए अवतार ग्रहण करता है। 2. जैन परम्परा अनेकेश्वरवादी है। भव्य जीव मुक्त होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर सकता है। 3. जैन परम्परा अवतारवाद न मानकर मोक्ष में से अपुनरावृत्ति (वापिस न आना) स्वीकार करती है। 4. ईश्वर नहीं होते हैं, वे तो सिद्ध स्वरूप ही है। जैन दर्शन में सिद्ध पद को परम पुरुषार्थ का परिणाम माना है। 1. धवला. 1.1, 1.1.46.2