________________ (142) इसी प्रकार अथर्ववेद में ब्रह्मरूपता का प्रतिपादन किया है जो तत्ववेत्ता उस निर्विकार, अजर, अमर, नित्य आत्मा को जानता है, वह मृत्यु से कदापि भयभीत नहीं होता। ऐसा निष्काम, धैर्यशाली पुरुष साक्षात् शिव हो जाता है। वह सर्वदा पूर्ण आनन्द से संतृप्त रहता है। उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रहती। वह वासनाओं से रहित होकर, विश्वरूपता को प्राप्त कर लेता ___ इन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि अभ्युदय प्रधान वेदों में आरम्भ से ही निःश्रेयस अथवा मुक्ति तत्त्व की धारा अविचल रूप से प्रवाहित होती चली आ रही है। बहुत पहले ही सत्यद्रष्टा ऋषियों ने स्थूल एवं नाशवान् जगत् से परे श्रेष्ठतम ज्योति स्वरूप शाश्वत मुक्ति का अन्वेषण कर लिया था। ब्राह्मण ग्रन्थों में मुक्ति ब्राह्मण ग्रन्थ भी अध्यात्म की ओर अतिशय प्रेरित हुए हैं। ऋग्वेद के ब्राह्मण ऐतरेय में उल्लेख है कि हे इन्द्र ! हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करके हमारे चक्षुओं को ज्ञान से पूर्ण कीजिए। पाश से बंधे हुए हम लोगों को मुक्त कर दीजिए। ___ यहाँ पर अज्ञान का आवरण दूर होने पर ही ज्ञान प्रकाश से ही कल्याण हो सकता है और बन्धन से मुक्ति भी तभी संभव है, यह निर्देश किया गया है। ऋग्वेद के सांख्यायन ब्राह्मण में भी ब्रह्म ज्ञान का प्राधान्य बताया गया है। पुनः कथन है कि "आत्मयाजी श्रेष्ठ है।" दृष्टान्त है यथा अहीत्यादि। अर्थात् जैसे सर्प त्वचा से निर्मुक्त होता है, वैसी ही आत्मयाजी इस मर्त्य शरीर रूपी पाप से सर्वथा मुक्त हो जाता है। ऐसे शरीर संबंध को फिर दोबारा प्राप्त नहीं करता है। इस प्रकार ब्राह्मण साहित्य में सृष्टि का प्रतिपादन आत्मज्ञान के लिए करके, आत्मज्ञान को जीव-ब्रह्म का अभेद बोधक माना है। ऐसे आत्मज्ञान से ही परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। 1. अथर्ववेद-१०.८.४ 2. ऐतरेय ब्राह्मण- 12.8 3. माध्यन्दिन शतपथ ब्रा. का 11 अ२ ब्रा 6, कण्डिका 13