________________ (140) उपपातविरहकाल उत्कृष्टतः छः मास का बताया है, उसका कारण यह है कि एक जीव के सिद्ध होने के पश्चात् संभव है कि कोई जीव अधिक से अधिक छः मास तक सिद्ध न हो। छः मास के अनन्तर अवश्य ही कोई न कोई सिद्ध होता है। यहाँ शंका की गई है कि सिद्ध क्या सान्तर सिद्ध होते हैं अथवा निरन्तर भी सिद्ध होते हैं। यहाँ सान्तर से तात्पर्य है कि बीच-बीच में कुछ समय छोड़कर व्यवधान से उत्पन्न होना एवं प्रति समय लगातार बिना व्यवधान के कोई भी समय खाली न जाना निरन्तर उत्पन्न होना है। 7. अपवर्ग-मोक्ष विषयक इतर दर्शनों की अवधारणा भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन की तत्त्व मीमांसा में एक मौलिक अन्तर है। पाश्चात्य दार्शनिक दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या मान्य करते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो दर्शन की उत्पत्ति आश्चर्य से मानते हैं। मानव को प्रकृति की विभिन्न घटनाओं को देखकर और परिवर्तनों के कारण आश्चर्य होता है और वह इनका कारण ढूंढता है। यहीं से दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। परन्तु इसके विपरीत भारतीय दर्शन की उत्पत्ति जीवन के सबसे कटु सत्य "दु:ख" से होती है। जीवन के दुःखों को दूर करना ही दर्शन का एकमात्र लक्ष्य है। भारत में दर्शन का मूल्य जागतिक ज्ञान-वृद्धि हेतु नहीं वरन् इस कारण की अपेक्षा से है कि वह हमारे जीवन के परम शुभ मोक्ष को प्राप्त कराने में सहायक होता है। इस प्रकार मोक्ष भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। ___'मुच्' धातु से व्युत्पन्न मोक्ष और मुक्ति का अर्थ स्वतन्त्र होना या छुटकारा पाना है। मोक्ष का अर्थ जीवन मरण के चक्र से, और उसके परिणाम स्वरूप सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना है। जन्म ग्रहण करने की आवश्यकता का आत्यन्तिक अभाव हो जाना ही सभी साधनाओं का लक्ष्य हैं, यही मोक्ष है। भारतीय दर्शन की यह विशेषता है कि वह मोक्ष से कम किसी मूल्य को जीवन का परम शुभ स्वीकार नहीं करता। यद्यपि मानवता की सेवा और नैतिक जीवन मूल्यवान है, किन्तु वे जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य नहीं, वे मात्र साधन ही है। इस प्रकार भारतीय दर्शन का लक्ष्य उस स्थिति को प्राप्त करना है, जहाँ जीव परम तत्त्व का ज्ञान ही प्राप्त नहीं करता वरन् स्वयं उसके साथ में तादात्म्य स्थापित कर लेना है। 1. प्रज्ञापनासूत्र 6.623 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्र 2.8, प्रज्ञा. 1.15-17