________________ (138) "वे केवल ज्ञानोपयोग द्वारा सभी पदार्थों के गुणों एवं पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवल दर्शन द्वारा सर्वतः- सब ओर से समस्त भावों को देखते हैं।" सिद्धों को जो अव्याबाध-सर्वथा विघ्न बाधारहित, शाश्वत सुख प्राप्त हैं, वह न मनुष्यों को प्राप्त है और न समग्र देवताओं को ही। तीन काल गुणित अनन्त देव सुख, यदि अनन्तबार वर्गवर्गित किया जाए तो भी वह मोक्ष सुख के समान नहीं हो सकता तात्पर्य यह है कि अतीत अनागत और भूत-तीनों काल से गणित देवों के सुख की कल्पना करें तो यदि लोक तथा अलोक के अनन्त प्रदेशों पर स्थापित किया जाये, सारे प्रदेश उससे भर जाएं तो वह देव अनन्त सुख से संज्ञित होता है। __दो समान संख्याओं का परस्पर गुणन करने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, उसे वर्ग कहा जाता है। देवों के उक्त अनन्त सुख को यदि अनन्त बार वर्गवर्गित किया जाये, तो भी वह मुक्ति-सुख के समान नहीं हो सकता। एक सिद्ध के सुख को तीनों कालों से गुणित करने पर जो सुखराशि निष्पन्न हो, उसे यदि अनन्तवर्ग से विभाजित किया जाए, तो सुख-राशि भागफल के रूप में प्राप्त हो, वह भी इतनी अधिक होती है कि सम्पूर्ण आकाश में समाहित नहीं हो सकती है। जैसे कोई म्लेच्छ पुरुष नगर के अनेकविध गुणों को जानता हुआ भी वन में वैसी कोई उपमा नहीं पाता हुआ उस (नगर) के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता। उसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी (सामान्य जनों के बोध हेतु) विशेष रूप से उपमा द्वारा उसे समझाया जा रहा है। जैसे कोई पुरुष अपने द्वारा चाहे गये सभी गुणों-विशेषताओं से युक्त भोजन कर भूख प्यास से मुक्त होकर अपरिमित तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार सर्वकालतृप्त-सब समय परम तृप्ति युक्त, अनुपम शांतियुक्त सिद्ध शाश्वत-नित्य तथा अव्याबाध-सर्वथा विघ्न बाधारहित परम सुख में निमग्न रहते हैं।' वे सिद्ध हैं-उन्होंने अपने सारे प्रयोजन साध लिये हैं। वे बुद्ध हैं-केवलज्ञान द्वारा समस्त विश्व का बोध उन्हें स्वायत्त है। वे पारगत हैं-संसार सागर को पार चुके हैं। वे परम्परागत हैं-परम्परा से प्राप्त मोक्षोपायों का अवलम्बलन कर वे संसार के पार पहुँच गये हैं। वे उन्मुक्त-कर्म-कवच हैं-जो कर्मों का बख्तर उन 1. औपपातिक सूत्र 179 2. वही 180 3. वही 181-186