________________ (139) पर लगा था, उससे वे छूटे हुए हैं। वे अजर हैं-वृद्वावस्था से रहित हैं। वे अमर हैंमृत्यु रहित हैं। वे असंग-सब प्रकार की आसक्तियों से तथा समस्त पर पदार्थों के संसर्ग से रहित है। सिद्ध सब दुःखों को पार कर चुके हैं जन्म-जरा तथा मृत्यु के बंधन से मुक्त हैं। निर्बाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।' अनुपम सुख-सागर में लीन, निर्बाध, अनुपम मुक्तावस्था प्राप्त किए हुए सिद्ध समग्र अनागत काल में भविष्य में सदा प्राप्त सुख, सुखयुक्त अवस्थित रहते हैं। दिशा की अपेक्षा-स्थिति दिशाओं की अपेक्षा से सिद्धों का अल्पत्वबहुत्व का उल्लेख किया है कि "सबसे अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तरदिशा में है। पूर्व में (उनसे) संख्यातगुणे हैं और पश्चिम में (उनसे) विशेषाधिक हैं।"२ वृत्तिकार इसके हार्द को कहते हैं कि "सबसे अल्पसिद्ध दक्षिण और उत्तर में हैं, क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होते हैं, अन्य जीव नहीं। सिद्ध होने वाले मनुष्य चरम समय में जिन आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ (स्थित) होते हैं, उन्हीं आकाश प्रदेशों की दिशा में ऊपर जाते हैं, उसी सीध में ऊपर जाकर वे लोकाग्र में स्थित हो जाते हैं। दक्षिण दिशा में पाँच भरत क्षेत्रों में तथा उत्तर में पाँच ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्य अल्प हैं, क्योंकि सिद्धक्षेत्र अल्प है। फिर सुषम-सुषमा आदि आरों में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इस कारण दक्षिण और उत्तर में सिद्ध सबसे कम हैं। पूर्वदिशा में उनसे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि भरत और ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व विदेह संख्यातगुणा विस्तृत है, इसलिए वहाँ मनुष्य भी संख्यातगुणे हैं और वहाँ से सर्वकाल में सिद्धि होती है। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्यों की अधिकता है।" इसी ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने गतियों की अपेक्षा से नारक, मनुष्यों, देवों की अपेक्षा सिद्धों को अनन्त गुणा कहा है। फिर प्रश्न है कि सिद्धिगति कितने काल तक सिद्ध से रहित कही गई है? इसका समाधान यह है कि (सिद्धिगति का विरहितकाल) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट छः महिनों तक का है। तात्पर्य यह है कि सिद्धगति का 1. वही 186 2. प्रज्ञापनासूत्र 3.224 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति पत्र 116-119 4. प्रज्ञापनासूत्र 3.2.225 5. प्रजापनासूत्र 6.564