________________ (149) यहाँ सांख्यकार के अनुसार निवृत्ति का अर्थ 'ध्वंस' है। इनके मतानुसार उत्पन्न वस्तु का अपने कारण में लय होना ही ध्वंस है। सांख्य के मत में प्रकृतिपुरुष का भेदज्ञान उत्पन्न होने पर पुरुष मुक्त होता है। भेदज्ञान से किस प्रकार मुक्ति प्राप्त करता है? उस विषय में कथन है कि-प्रकृति से पुरुष तक पच्चीस तत्त्वों के स्वरूप पर श्रद्धापूर्वक निरन्तर दीर्घकाल पर्यन्त अभ्यास के परिणाम स्वरूप साधक के चित्त में सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति अर्थात् बुद्धि-पुरुष की भिन्नता का बोधक ज्ञान उत्पन्न होता है। संशय और विपर्यय (मिथ्याज्ञान) के अभाव में यह भेदज्ञान या तत्त्वज्ञान विशुद्ध होता है। जब तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब अज्ञानोत्पादक कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रहता है। इससे मिथ्याज्ञान भी उत्पन्न हो नहीं पाता। इस अर्थ में यह तत्त्वज्ञान निरवशेष है। इस तत्त्वज्ञान का स्वरूप इस प्रकार है-मैं पुरुष परिणामी नहीं हूँ, इसलिए मैं कर्ता नहीं हूँ, अकर्तृत्व के कारण मुझ में वास्तविक स्वामित्व भी नहीं है। इस प्रकार विवेक ज्ञान जागृत होने पर मुक्ति का मार्ग अधिक विकसित हो जाता है। सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिरूप विद्या के उदय होने पर अविद्या का जड से नाश हो जाता है। अविद्या के अभाव में उसके कार्य राग द्वेष आदि भी उत्पन्न नहीं होते। राग-द्वेष के अभाव में नये धर्म-अधर्म उत्पन्न नहीं होते, साथ ही पूर्वसंचित कर्म भी राग द्वेष आदि सहकारी के अभाव में दग्धबीजरूप अवस्था को प्राप्त करते हैं। पुरुष का बोध अभिमानिक है। उसका इस अभिमान का तत्त्वज्ञान का उदय होने पर नाश हो जाता है। अभिमान के कारण ही राग द्वेष उत्पन्न होता है। और रागद्वेष के कारण धर्म-अधर्म आइद उपार्जित करता है। इस प्रकार संचित कर्म राग द्वेष का सहकार लेकर पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। इसके अभाव में संचित कर्म दग्ध हो जाते हैं। और अवशिष्ट रहे प्रारब्ध कर्मों का भोग द्वारा क्षय होने पर पुरुष की स्वाभाविक कैवल्यावस्था प्रकट होती है। इस प्रकार तत्त्वसाक्षात्कार के परिणाम स्वरूप मुक्ति संभवित होती है। इस अवस्था में पुरुष निष्क्रिय और स्वस्थ बनकर प्रकृति को उदासीन भाव से देखता है। विवेकख्याति उत्पन्न होने के बाद प्रकृति और पुरुष का संयोग होने पर भी, सृष्टि का प्रयोजन भोग और भेदज्ञान सिद्ध हो जाने के कारण, तत्त्वज्ञान का उदय हो जाता है। इससे पुरुष की मुक्ति में कोई प्रतिबन्धक एवं बाधक नहीं हो पाता। 1. सां. त. कौ. 64 २.सां.प्र. भा. 1.1