________________ (131) 5. अन्य कोई भी ईश्वर की सर्वोपरि सत्ता को वहन नहीं कर सकता। जबकि जैन परम्परा में सर्व को यह अधिकार प्रदान दिया गया है। 6. यह ईश्वर संशरीरी भी है तो अशरीरी भी है। जबकि जैन मुक्तों को अशरीरी ही मानते हैं। 7. ईश्वर को अशरीर एवं शरीरी रूप में विश्वव्यापी मानते हैं, जबकि सिद्ध परमेष्ठी के अनन्तज्ञान से लोकालोक व्यापी माना गया है। वे लोकाग्र में सिद्धशिला पर प्रतिष्ठित हैं। ____8. ईश्वर की इच्छा-संकल्प से सब होता है जबकि सिद्ध परमात्मा इच्छा रहित होते हैं। जब शरीर नहीं, राग-द्वेष नहीं तो इच्छा का प्रश्न ही नहीं उठता। 9. ईश्वर के ही अंश रूप में ही जीव हैं, जो कि उपाधि भेद से हैं। जीवों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व नहीं है। जैन जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं। 10. ईश्वर ही शुभाशुभ के फल का दाता है, जबकि जैन दर्शन कर्मसत्ता को बलवान् मानकर ईश्वर को फलदाता स्वीकार नहीं करता। ____ 11. संभवामि युगे युगे-ईश्वर को युग-युग में जन्म लेने वाला मानते हैं तो यहाँ मुक्त आत्मा का संसार में पुनः प्रादुर्भाव नहीं माना गया। 12. ईश्वर जगत् का नियन्ता है, जबकि मुक्त आत्मा इन से सर्वथा परे है। 13. ईश्वर को एक मात्र सत्य एवं जगत् को मिथ्या, मायारूप माना है। सिद्ध का स्वरूप शुद्ध है, तो जगत् और जीव को मिथ्या या माया रूप नहीं माना। 14. ईश्वर सदा काल नित्य ही है, जबकि सिद्ध परमात्माने घाती-अघाती कर्मों का क्षय करके सादि, अनन्त, शाश्वत स्थिति का वरण किया है। 15. ईश्वर के निवास स्थान के लिए कोई बैकुण्ठ, तो कोई शेषशायी तो कोई अदृश्यमान स्वीकार करते है, जबकि सिद्धात्मा मोक्ष में ही बिराजते हैं। 16. ईश्वर की पूजा में उसे पत्नियुक्त तथा आयुधरूप से पूजते हैं, जबकि सिद्धात्मा अशरीरी एवं वीतरागी है। 17. अवतार कहीं 7, कहीं 10 और कही 24 माने गए हैं, जबकि सिद्ध परमात्मा अनन्त हैं। वैसे उत्तरकालीन न्याय वैशेषिक मत में जो ईश्वर को नित्यमुक्त और