________________ (112) करके, शरीर को, इन्द्रियों को त्याग करके निर्मल होकर केवल ज्ञान को प्राप्त करके सिद्ध होते हैं। यहाँ 22 परीषहों को कर्मनाश के लिए महत्त्वपूर्ण बताया है। __यहाँ व्युत्पत्ति-नियुक्ति परक अर्थ में व्यावहारिक एवं पारमार्थिक दृष्टिकोण से अर्थ संगत किया है। वास्तव में अनेक अर्थों में अभिव्यजित सिद्ध पद के अर्थसंकुल में जैन परम्परा कर्मक्षययुक्त (मुक्त) जीव को ही उपयुक्त समझती है, इसी अर्थ को सार्थक करते हुए अपना मौलिक शब्द प्रयुक्त करती है। सिद्ध पद की पर्यायें जैन आगम जैसे कि अर्थप्रधान हैं, उनमें सिद्ध शब्द अनेक अभिधानों से प्रयुक्त हुआ है। यथा-सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिवृत्त, अन्तकृत, सर्वदुःखप्रहीण, कालगत आदि। अधिकांशतः इन पर्यायों का कथन एक साथ भी किया गया है एवं स्वतन्त्र रूप से भी उपलब्ध होता है। यद्यपि सिद्ध परमेष्ठी की ये सब पर्यायें समान अर्थ ज्ञापित करती है तथापि किंचित् अर्थभिन्नता को भी ग्रहण किये हुए है। अब हम देखगें कि इन पर्यायों में क्या अर्थभेद समाया हुआ है? 1. सिद्ध-जो कृतकृत्य हो जाने से सिद्ध है जिन गुणों के द्वारा जो निष्पन्न होता है वह सिद्ध है। यहाँ अभीष्ट की सिद्धि अर्थात् आत्मा से संबंधी सर्व कार्य निष्पन्न हो जाना तथा आत्मा से संलग्न अष्टकर्मों का पृथक्करण रूप सिद्ध होना ही अर्थ संगत है। कर्मबंधनों को नष्ट करने में सिद्धता हांसिल कर लेने से सिद्ध शब्द उपयुक्त ही है। 2. बुद्ध.. केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय सहित होने से आत्मा बुद्ध है अथवा बुद्धि के द्वारा सब कुछ जानते हैं अतः बुद्ध है। अज्ञाननिद्रा से प्रसुप्त जगत् के विषय में परोपदेश के बिना जीवादि तत्त्वों के ज्ञाता होने से बुद्ध है। ___ यहाँ बुद्ध शब्द का प्रयोग अनन्तज्ञानी, सर्वज्ञता को सूचित करता है। कुछ अन्य दर्शन मुक्तात्मा में ज्ञानादि गुणों का अभाव स्वीकार करते हैं। उनके मत का खंडन करने के लिए तथा सिद्ध के अर्थ का विस्तार करने के लिए उनको बुद्ध शब्द से अभिप्रेत किया है। आत्मा के ज्ञान गुण का कभी नाश नहीं होता वरन् कर्मक्षय के पश्चात् शुद्ध, अनन्त ज्ञान का प्राकट्य होता है। 1. मूलाचार 7 अधिकार 6-7 2. विशेषा, 3027, मूलाचार 7.6-7, भगवती 2.1.16. 3. परमात्म प्रकाश टी. 1.13.21.5, भाव पाहुड टी. 149.293.14 भग. 2.1.19