________________ (122) 11. लोकाग्रप्रतिबोधना जिसके द्वारा लोक के अग्रभाग का बोधन होता है अर्थात् जाना जाता है, इससे लोकाग्रप्रतिबोधना है। 12. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्व सुखावहा __ समस्त प्राण-दो, तीन चार इंद्रिय वाले जीव, भूत-वनस्पति काय के जीव, जीव-पंचेन्द्रिय जीव, सत्त्व-पृथ्वीकाय-ये समग्र जीव जब सिद्धशिला पर पृथ्वीकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं, तब पृथ्वीकाय के जीवों को सुखावह होती है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय के जीव वहाँ सुखी होते हैं। कारण यह है कि इन जीवों को दुःख दो प्रकार से होता है। परकायशस्त्र एवं स्वकायशस्र। पर काय अर्थात् अप्काय अग्निकाय, वायुकायादि के जीवों के द्वारा या उनके शरीर के संघर्ष रूप शस्त्र से हिंसा जन्य दु:ख। वहाँ मात्र पृथ्वीकाय ही होने से परकायशस्त्र की संभावना ही नहीं है। स्वकायजन्य शस्त्र से भी वहाँ दुःखानुभूति नहीं होती। क्योंकि अन्यजीवों के द्वारा ही उनमें संघर्ष-हिंसादि हो सकते है, पृथ्वीकाय से नहीं। अतः स्वकायशस्त्र जन्य दुःख भी वहाँ नहीं है। इसी कारण इस पृथ्वी को सर्वप्राणभूतजीवसत्त्व सुखावहा कहा गया है। इस प्रकार सिद्धिगति के द्वादश नाम अर्थभिन्नता को लिए है। अपेक्षा भेद से इनकी ये बारह पर्यायें कही गई है। 3. अष्ट-कर्म-क्षय-स्वरूपः सिद्धि ___ गत पृष्ठों में हमने सिद्ध विषयक अवधारणा संबंधित प्ररूपणा की विवेचना की। जिसमें सिद्ध, उनका स्वरूप, प्रकार, गुण, व्युत्पतिपरक अर्थ, सिद्धि, मोक्ष आदि के स्वरूप का ज्ञान किया। उन सब में यही एक तारतम्य निकलता है कि जिसने भी अष्ट कर्मों का क्षय किया है, उनका समूलोच्छेद किया है, वह सिद्ध पद का वरण कर सकता है। अष्टकर्मों में से एक की भी उपस्थिति हो तो वह आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। इन कर्मों की श्रृंखला में आबद्ध जीव छद्मस्थ (संसारी) कहलाता है। जब यह श्रृंखला टूट जाती है, कर्म-नाश हो जाते हैं तब वह मुक्त हो सकता है। कर्मों का बंधन जीव को इस प्रकार जकड़ कर रखता है कि वह उनके फलस्वरूप भवभ्रमण करता रहता है। अनादि काल से यह आत्मा और कर्म का संयोग उसको जन्म-जरा-मृत्यु के पाश में फंसा रखता है। मुक्त होने की पहली शर्त है कर्म क्षय होना। कर्म-क्षय होने पर जीव तत्क्षण मुक्ति पा सकता