________________ (125) 6. नाम-नाम कर्म के अनेक भेद/प्रभेद हैं। परन्तु संक्षेप में अच्छा या बुरा शरीर, अच्छा या बुरा रूप, सुस्वर या दुःस्वर, यश अथवा अपयश आदि इस कर्म पर अवलम्बित हैं। नाम कर्म के विपाक (फल) से ही एकेन्द्रियादि जाति और मनुष्यादि गति प्राप्त होती है। जिस प्रकार चित्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे बुरे चित्र बनाता है, उसी प्रकार प्राणियों के विविध देहाकारों, रूपाकारों, रचनाकारों का निर्माण करने वाला यह कर्म है। 7. गोत्र-गोत्रकर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र / प्रशस्त अथवा गर्हित स्थान में, संस्कारी अथवा असंस्कारी कुटुम्ब में जन्म होना इस कर्म का परिणाम है। 8. अन्तराय-इस कर्म का कार्य विघ्न उपस्थित करने का है। सुविधा हो और धर्म की समझ भी हो फिर भी मनुष्य दान न दे सके, वैराग्य अथवा त्यागवृत्ति न होने परभी मनुष्य अपने धन का उपभोग न कर सके, अनेक प्रकार के बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने पर भी व्यापार-रोजगार में सफलता न मिले अथवा हानि उठानी पडे- शरीर पुष्ट होने पर भी उद्यमशील न हो, इस कर्म के परिणाम स्वरूप है। पुरुषार्थ, उद्यम इस कर्म के नाश पर अवलम्बित है। घाती एवं अघाती कर्म जो कर्म आत्मा के निजस्वरूपात्मक केवलज्ञान आदि मुख्य गुणों का घात करते हैं (उन गुणों के आवारक) हैं, वे घाती कर्म हैं / अष्ट कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातीकर्म हैं। इन चार घाती कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट होता है। इस ज्ञान के प्रकट होने के साथ ही आत्मा पूर्णद्रष्टा-पूर्णज्ञानी बनता है। ___इसके पश्चात् जब आयुष्य पूर्ण होने का समय होता है तब अवशिष्ट चार कर्म यथा आयुष्य, नाम, गोत्र, वेदनीय का क्षय करता है। ये अघाती अथवा भवोपग्राही (भव अर्थात् संसार अथवा शरीर, उसे टिकानेवाला) कहलाते हैं। इनका क्षय करके उसी समय सीधा उर्ध्वगमन करता हुआ क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग पर अवस्थित हो जाता है। यही अवस्था मोक्षावस्था अथवा सिद्धावस्था है। सर्व कर्म मुक्त जीव को ही सिद्ध कहा जाता है। 4. मुक्त जीवों का उर्ध्वगमन कर्म मुक्त आत्मा सिद्ध होती है, और सिद्धिगति नामक स्थान पर जो कि