________________ (126) लोकान्त जाकर प्रतिष्ठित होती है, ऐसा पूर्वोल्लेख किया गया। यहाँ पर शंका होती है कि कर्मरहित आत्मा को किंचित् न्यून सात राजु प्रमाण गति कैसे संभव होती है? यहाँ पुनः प्रश्न उभरता है कि कर्मरहित जीव की गमनक्रिया में क्या हेतु है? तो कहा गया कर्म हेतु है। यदि ऐसा कहा जाये तो पुद्गलमय निर्जीव कर्म जीव को मोक्ष में ले जाने के सामर्थ्य में कौन सा हेतु माना गया है? तो यहाँ इसके समाधान में कहा गया है कि अरूपी जीव द्रव्य चैतन्यवाला कैसे है? जिस प्रकार चैतन्य जीव का विशेष धर्म है, उसी प्रकार मोक्षगमन रूप क्रिया भी उसके विशेषधर्म स्वरूप स्वीकार की गई है। जिस प्रकार मिट्टी के संगरहित होने पर तुंबडा, बंधनोच्छेद होने से एरंडफल, तथाविध परिणाम से धूम अथवा अग्नि और पूर्व प्रयोग से धनुष से छूटे तीर की जिस प्रकार उर्ध्वगति होती है, उसी प्रकार सिद्ध परमेष्ठी की भी सर्व कर्म क्षय होने से उर्ध्वगति होती है। पानी में मिट्टी से लिप्त तुंबडे का लेप दूर हो जाने पर अवश्य ही उर्ध्वगति (भाव) होती है। वह उस नियम से अन्यथा नहीं जाता, एवं.जल की सतह से ऊपर भी नहीं जाता। उसी प्रकार कर्म का लेप दूर होने से अवश्यमेव-नियम से सिद्ध की भी उर्ध्वगति होती है, अन्यथागति नहीं होती एवं लोक के ऊपर (अलोक) में भी गति नहीं होती। - इसी प्रकार बंधन का छेद होने से प्रेरित एरंडादि के फल जल्दी ऊपर जाते हैं, अग्नि तथा धूम की ऊर्ध्वगति परिणाम होता है। उसी प्रकार विमुक्त आत्मा का भी स्वभाव से ही ऊर्ध्वगति परिणाम होता है। अग्नि एवं धूम स्वभावकाल में ऊर्ध्वगति भाव को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सिद्ध को भी स्वकर्मपरिणाम की अपेक्षा सिद्धत्व की भाँति उर्ध्वगतिपरिणाम प्राप्त होता है। धनुष और पुरुष के प्रयत्न से प्रेरित तीर का भिन्न प्रदेश में गमन होता है उसी के सदृश कर्मरूप गति का कारण दूर होने पर ही पूर्वप्रयोग से सिद्धिगति होती है। विमुक्त आत्मा की लोकान्त पर्यन्त गति होती है। जिस प्रकार कुंभार का चक्र पूर्वप्रयोग से सक्रिय होता है उसी प्रकार एक समय मात्र में मुक्तात्मा की भी उर्ध्वगति रूप क्रिया होती है। 1. ज्ञाता धर्मकथा-६ 2. विशेषा. भा. 3136-3150, 956, 325