________________ (70) का विकास होता है, तब कलह, कदाग्रह समाप्त हो जाता है। तब यह सोचने का अवसर मिलता है, मैं उसे समझू, वह मुझे समझे। मैं उसका सहन करूं, वह मेरा सहन करे। जब एक-दूसरे को सहने की भावना का विकास होता है, तब शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व फलित होता है और इस प्रकार सहिष्णुता के विकास द्वारा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का विकास हुआ। 4. हृदय परिवर्तन का चौथा सूत्र है-करुणा का विकास__ मनुष्य के हृदय में करुणा-दया-अनुकम्पा होती है। पशु समाज में क्वचित् करुणा का उदाहरण मिल भी जाता है, परन्तु सभी पशुओं में करुणा का विकास नहीं देखा जाता। मनुष्य की यह विशेषता है कि उसने करुणा का विकास किया है। करुणा की प्रतिष्ठा कर उसको महान् मूल्य दिया है। __ हृदय परिवर्तन होना यह महान् उपलब्धि है, मनुष्य की। अर्हत् परमेष्ठी का यह अतिशय है कि उनकी सन्निधि में मनुष्य ही नहीं प्राणी मात्र निवैर हो जाता है। यह उनकी लोकमंगल की उदात्त भावना का ही सुफल है। उनके समवसरण (धर्मसभा स्थल) में प्राणी मात्र को स्थान प्राप्त था। सभी उस समवसरण में धर्म श्रवण करने के अधिकारी थे। इस प्रकार हृदय परिवर्तन के सूत्रों से हमने देखा कि जब वीतरागता चरम सीमा पर पहुंच जाती है, तब व्यक्तित्व रूपान्तरण स्वयमेव ही हो जाया करता है। इतिहास इसका साक्षी है। अर्हत् परमेष्ठी के सन्निकट पहुंचे प्राणीमात्र में रूपान्तरण हुए बिना नहीं रहता। यहाँ तक कि अनिच्छा से भी यदि उनका धर्मोपदेश श्रवण करना पड़ा हो तो भी वह उसके आत्म-विकास हेतु परिवर्तन की दिशा में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है। फलतः आचार, विचार, व्यवहार सभी पहलुओं में रुपान्तरण की झलक दिखाई देती है। परिवर्तन के साथ सर्वप्रथम आवश्यक है कि चित्तवृत्तियों में परिवर्तन हो। जब तक मन के परिणाम/अध्यवसायों में परिवर्तन नहीं आएगा, तब तक व्यवहार पक्ष भी समुज्ज्वल नहीं बन सकेगा। एतदर्थ अर्हत् परमेष्ठी के समवसरण में सर्व प्राणियों के वैर-भाव का शमन हो जाना, यह उनके अप्रतिम माहात्म्य को इंगित करता है। उनकी वाणी-उपदेश-आगम तो दूर की बात उनका सहवास, उनकी स्थिति एवं उनका अस्तित्व ही रुपान्तरण के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मत्सरता, अभिमान आदि दोषों का अपगम होकर सुख-शांति समाधि आदि गुणों की प्रतिष्ठापना हो जाती है।