________________ (81) बौद्ध परंपरा में अर्हत् एवं बोधिसत्व बौद्ध परंपरा सर्वोच्च पद पर परम साध्य स्वरूप में बुद्ध को मान्य करती है। जैसा कि पूर्व में उल्लिखित है कि भगवान गौतम बुद्ध को नमस्कार करते हुए कहा 'नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स'। साथ ही प्रतिदिन स्मृत पद में 'तिपि सो भगवां अरहं' इस प्रकार भगवान का स्मरण भी किया जाता रहा है। इन संदर्भो से इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यहाँ अर्हत पद की गरिमा कोई कम नहीं। जो भी बुद्ध होते हैं, वे अर्हत होते ही हैं। तब प्रश्न उभरता है कि जिस प्रकार जैन परंपरा में जैनागमों में तीर्थङ्करों को अर्हत् पद से विभूषित किया गया है, उसी प्रकार बौद्ध परंपरा भी क्या यह स्वीकार करती है जो बुद्ध हैं वे ही अर्हत् हैं अथवा बुद्ध के अतिरिक्त भी अर्हत् का अस्तित्व है? ___ उपर्युक्त पदों से यहाँ इतना तो निश्चित हो जाता है कि जो बुद्ध हैं, वे अर्हत् हैं ही। अब शेष यह ज्ञात करना है कि बुद्ध के अतिरिक्त भी अर्हत् होते हैं या नहीं? जब हम बौद्ध परंपरा के परिप्रेक्ष्य में यह देखते हैं तो वहाँ मात्र बुद्ध के लिए ही नहीं अन्य भिक्षुओं को भी अर्हत् कहा गया है। भिक्षु के अतिरिक्त श्रावक वर्ग भी इससे वंचित नहीं रह पाते। बौद्ध ग्रंथों में अनेकशः ऐसे उल्लेख हैं, जहाँ ऋषि मुनियों के साथ श्रावकों ने भी इस पद को वहन किया है। इस प्रकार प्रत्येक साधक साधना के बल पर इस पद का अधिकारी हो सकता है। चाहे वह भिक्षु हो या श्रावक। परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है जो भी बुद्ध हुए हैं, वे अर्हत् होते ही हैं / यहाँ केवली के समकक्ष अर्हत् को यहाँ रखा जा सकता है। अर्हत् किसे कहा जाये? इसका किंचित् स्वरूप निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। अर्हत् का आदर्श क्या है ? भगवान बुद्ध के मूल उपदेश जो पालि निकायों में निहित है, अर्हत्त्व की प्राप्ति को ब्रह्मचर्य का, जीवन साधना, अंतिम लक्ष्य बताया है। इस प्रकार अर्हत् प्राप्ति का वहाँ एक बड़ा गौरव है। स्वयं बुद्ध अर्हत् कहे गये हैं। बुद्ध के चिर उपस्थापक शिष्य आनन्द, जो छाया की भांति उनसे संलग्न रहते थे, उच्च कोटि के साधक थे, वे बुद्ध के परिनिर्वाण-काल तक अर्हत्त्व प्राप्त नहीं कर पाये थे। अर्हत्त्व प्राप्त करना कोई साधारण कार्य बौद्ध साधना में नहीं था। 1. सुत निपात-कसिभारद्वाजसुत्त 4. आलवक सुत 30, समिय सुत्त 32.32