________________ (92) 5. सुदुर्जया-इस भूमि में साधक दूसरों के धार्मिक विचारों को पुष्ट करता है और स्वचित्त की रक्षा के लिए दुःख पर विजय प्राप्त करता है। यह कार्य अति दुष्कर होने से ही इसे सुदुर्जया कहा गया है। इसमें ध्यान-पारमिता का अभ्यास करता है। इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद का साक्षात्कार हो जाने से भवापत्ति विषयक संक्लेशों से रक्षा हो जाती है। 6. अभिमुखी-इस भूमि में प्रज्ञा-पारमिता के आश्रय से संसार और निर्वाण दोनों के अभिमुख रहता है। उसमें प्रज्ञा का यथार्थ उदय होता है। इसमें प्रज्ञा की पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। 7. दूरंगमा-इसमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद अर्थात् एकांतिक मार्ग से बहु दूर चला जाता है। बोधिसत्त्व की साधना पूर्ण कर निर्वाण लाभ के योग्य हो जाता है। इसमें स्वयं सभी पारमिता का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। 8. अचला-इस भूमि में संकल्प शून्यता एवं विषम रहित अनिमित्तविहारी समाधि की उपलब्धि होती है। चित्त के संकल्प रहित होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। 9. साधुमति-इस भूमि में बोधिसत्त्व के हृदय में संसार के सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव एवं शुभ भावनाओं का उदय होता है। वह प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करता है। समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति (विश्लेषणात्मक अनुभव करने वाली बुद्धि) इस भूमि की प्रधानता है। बोधिसत्त्व को इस अवस्था में दूसरे प्राणियों के मनोगत या आन्तरिक भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। 10. धममेधा-जिस प्रकार अनन्त आकाश को मेघ व्याप्त कर लेता है उसी प्रकार इस भूमि में धर्माकाश को समाधि व्याप्त कर लेती है। इस भमि में बोधिसत्त्व दिव्य भव्य शरीर प्राप्त कर कमल पर विराज मान दृष्टिगोचर होते हैं। वस्तुतः यह बुद्धत्व की पूर्णप्राप्ति की अवस्था है। यहाँ बोधिसत्त्व बुद्ध बन जाता इस प्रकार दस भूमि रूप अवस्थाएँ प्राप्त करके मनुष्य बुद्धत्व की प्राप्ति कर लेता है, ऐसा महायान संप्रदाय का मन्तव्य है। चार भूमियाँ हीनयान संप्रदाय स्वीकार करता है जो प्राचीन बौद्ध परंपरा में भी मान्य थी। चार अवस्थाएँ हो या