________________ (97) जन्मान्तर में शरीर धारण करने की कोई शक्यता नहीं होती। परन्तु पूर्वजन्मकृत जो धर्म-अधर्म वर्तमान देह में अपना फल देने में प्रवृत्त रहते हैं, उनकी फलदान क्रिया पूरी नहीं होती हैं, तब तक तत्त्वज्ञानी को शरीर धारण करना पड़ता है। इस प्रकार जितना समय तत्त्वज्ञानी को शरीर धारण करना पड़ता है, वहाँ तक यह अवस्था जीवन्मुक्ति की अवस्था होती है। यह ज्ञानी पुरुष क्लेशकर्म मुक्त जीवन जीता है तब वह जीवन्मुक्त कहलाता है। जीवन्मुक्त अवस्था स्वीकार करने का भी एक प्रयोजन है। क्योंकि जिन पुरुषों ने विदेहकैवल्य प्राप्त किया है, उन सब के शरीर होता नहीं है, वे उपदेश नहीं दे सकते। और जो अज्ञानी-अविवेकी हैं, वे उपदेश देने के योग्य नहीं होते। अतः जीवन्मुक्त पुरुष ही उपदेष्टा बन सकते हैं। इसीलिए सांख्य मत में जीवन्मुक्तावस्था को स्वीकार किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सांख्यदर्शन जीवन्मुक्त अवस्था को स्वीकार करते है, कि जो तत्त्वज्ञानी है, उपदेष्टा है, उद्धारक है किन्तु संघप्रवर्तन आदि संघीय व्यवस्था आदि नियोजन यहाँ दृष्टिगत नहीं है। इस जगत् में जितने भी पुरुष हैं, वे सभी इस जीवन्मुक्तावस्था का वरण करके मुक्त हो सकते हैं / अतः सभी जीवन्मुक्त को समान अधिकार यहाँ प्राप्त है। सांख्यमत में इस प्रकार निम्न बातें दृष्टिगोचर होती है1. मुख्यतः उपदेश ही तीर्थ है। 2. जीवन्मुक्त ही उपदेष्टा है। 3. जीवन्मुक्त ही उपदेष्टा है इसका मतलब यह नही कि जीवन्मुक्त उपदेष्टा है ही। ___4. सर्वज्ञत्व एक सिद्धि है। बिना इस सिद्धि के जीवन्मुक्त हो सकता है। बिना सर्वज्ञत्व प्राप्त किये मुक्ति संभव है। 5. सर्वज्ञसिद्धिसंपन्न जीवन्मुक्त उपदेष्टा हो, अन्य जीवन्मुक्त नहीं-यह संभव 1. योगभाष्य 2.27 2. योगभाष्य 4.30 3. सा.सू. 3.69