________________ (104) होते हैं। वे केवल मार्ग निर्देश करते हैं, प्रेरणा देते हैं किन्तु साधक को उस पर स्वयं चलना होता है, साधना करनी पड़ती है। वे किसी पर कृपा नहीं करते, मात्र पथ-प्रदर्शक एवं उपदेशक होते हैं। ____अपने स्वरूप का प्राकट्य स्वयं को करना होता है, अर्हत् तो निमित्तमात्र होते हैं। वस्तुतः कृपा के स्थान पर यहाँ पराक्रम-पुरुषार्थ को प्रधानता दी गई है। कर्मक्षय का पुरुषार्थ स्वयं पर ही निर्भर है। इस प्रकार जैन धर्म में अर्हत आदर्श रूप, साध्य है किन्तु वह निमित्तमात्र है। साध्य सिद्धि स्वंय के पुरुषार्थ पर निर्भर बुद्ध बौद्ध धर्म में बुद्ध को धर्मचक्र का प्रवर्तक तथा धर्म का शास्ता कहा गया है। त्रिपिटकों-निकायों एवं धम्मपद, कथावत्थु में बुद्ध को अनुत्पन्न मार्ग का प्रवर्तक, मार्गद्रष्टा ज्ञात कहा गया है। श्रमण, ब्राह्मण, वेदज्ञ, भिषक्, निर्मल, विमल, ज्ञानी, विमुक्त आदि अनेक अभिधानों से बुद्ध को अभिहित किया गया है। ___ वास्तव में बुद्ध का अर्थ होता है-जागृत! बौद्ध धर्म में बुद्धत्व की प्राप्ति प्रत्येक प्राणी को वीर्य, प्रज्ञा और पुरुषार्थ से होना मान्य किया है। साथ ही प्रत्येक प्राणी में बुद्ध बीज निहित है, बुद्धत्व की क्षमता का धारक है। गौतम भी इसी तरह बुद्ध एवं सम्यक् संबुद्ध बने। हीनयान के बद्ध का लक्ष्य अपने क्लेशों से मुक्ति पाकर अर्हत् पद प्राप्त करना है, तो महायानी के बोधिसत्त्व संसार के समस्त प्राणियों के निर्वाणलाभ के पश्चात् स्वयं की मुक्ति चाहता है। बौद्धधर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति दस पारमिताओं की साधना करके बुद्धतत्त्व का वरण कर सकता है। बुद्धत्व की प्राप्ति का मूलाधार बोधिचत्त का उत्पाद है, जिसके उदय से कारुण्य भाव प्रगट होता है, जो कि बुद्धचित्त के लिए आवश्यक है। जैन धर्म के समान बौद्ध धर्म में भी अर्हत्, बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध की अवधारणा संप्राप्त होती है। बौद्ध धर्म में भी प्रारंभ में 7, फिर 24 बुद्धों की अवधारणा प्रचलित हुई। बुद्धत्व का आदर्श लोककल्याण है। बुद्ध ने स्वयं बोधि प्राप्त कर लोककल्याण को परम श्रेयस्कर बताया और उन्होंने यह संदेश दिया कि हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए, सुख के लिए लोक की अनुकम्पा के लिए तथा देव और मनुष्य के सुख के लिए परिचारणा करते रहो। जागृत रहो। बुद्धत्व