________________ (105) का मनोवैज्ञानिक पुट यह है कि व्यक्ति सदा जागृत रह कर, करुणा से सदा लोक कल्याण में तत्पर रहता है। जीवन्मुक्त सांख्य योग दर्शन विवेक सम्पन्न तत्त्वज्ञानी जीवन्मुक्त का आदर्श लिए हुए है जो कि राग-द्वेष, कर्म अनुशय को नाश करके मुक्त हुए हैं। किन्तु संघीय व्यवस्था, धर्म संस्थापना का कोई उल्लेख वहाँ नहीं किया है। सर्व दुःख निवृत्ति रूप परम पुरुषार्थ मोक्ष को परम साध्य स्वीकार किया गया है। वैसे जीवन्मुक्त का परम कार्य उपदेश तो है ही। इस प्रकार संक्षिप्त रूप से अवतार-ईश्वर, अर्हत्, बुद्ध एवं जीवन्मुक्त का तुलनात्मक रूप से विचार किया गया। सभी के जीवन का मूलभूत लक्ष्य सामान्यतया धर्म की संस्थापना या धर्मप्रवर्तन है। अर्हत् एवं बुद्ध से भिन्न अवतार की अवधारणा का लक्ष्य धर्म की संस्थापना के साथ-साथ साधु रक्षण एवं दुष्टों का विनाश भी ____ अर्हत् एवं बुद्ध मूलत: व्यक्तित्व के सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास के परिचायक है। इन दोनों परंपरा में आत्मा स्वयं परमात्म स्वरूप अंगीकार कर सकती है, मान्य किया गया है जबकि हिन्दु परंपरा में व्यक्ति को ईश्वर का अंश माना गया है। उसमें एवं ईश्वर में एक अन्तर या दूरी रखी है। उनकी भक्तिमार्गी परम्पराएं स्वामी और दास की अवधारणा से अपना बचाव नहीं कर सकती। देखा जाय तो वास्तव में अवतारवाद जैविक विकास का विरोधी दिखाई देता है। वह परिचय अवश्य देता है किन्तु विकसित नहीं होने देता। अर्हत् एवं बुद्ध परंपरा में व्यक्ति निम्न स्तर से उच्च स्तर पर आरोहण कर विकास की दिशा में उत्क्रमण कर जाता है, जबकि अवतारवाद में पूर्ण पुरुष ऊपर से नीचे उतरता है। इस प्रकार उत्तरण एवं अवतरण की अपेक्षा से ये अवधारणा भिन्नत्व लिए हुए हैं। अवतारवाद में उपासक उपास्य नहीं बनता, व्यक्ति ईश्वर सान्निध्य प्राप्त करके भी ईश्वर नहीं बन सकता, जबकि अर्हत् और बुद्ध यह भेद समाप्त कर प्रभुत्ता प्राप्त करते हैं। यह सत्य है कि अर्हत् एवं बुद्ध लोकमंगल का उद्देश्य रखते हुए भी इसमें सक्रिय भागीदार नहीं होते। मात्र वे तो उपदेष्टा व पथप्रदर्शक होते हैं। वे आश्वासन नहीं देते हैं, कि कल्याण मुझ पर निर्भर है। किन्तु अवतार भक्तों के लोककल्याण में सक्रिय भागीदार होते हैं। अर्हत् और बुद्ध की अपेक्षा अवतार