________________ (103) अवतारों की अनेक सूचियाँ उल्लिखित है। साथ ही 24 अवतारों की अवधारणा भी विकसित हुई है। महाभारत, रामायण, गीता सभी में अवतार का उद्देश्य दैत्यों का संहार, सृष्टि नियोजन, साधु-रक्षण तथा धर्म की स्थापना रहा है। विष्णु पुराण एवं भागवत में धर्म की रक्षा एवं भू-भार हरण मुख्य प्रयोजन रहा है। इस प्रकार अवतार की अवधारणा का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह रहा है कि मनुष्य को यह विश्वास होता है कि वह संसार चक्र में नितान्त एकाकी नहीं है। अदृश्य शक्ति उसके विकास में सहायक है। उसकी कृपा उसे कष्ट मुक्त कराने में सहायक होती है। यह आस्था और आत्मविशवास ही अवतारवाद की अवधारणा का मूल उत्स है। क्योंकि गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से पुनः पुनः कहते हैं कि तू मेरे में मन लगा, मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। इस प्रकार हिन्दु धर्म में अवतार भक्तजनों के योगक्षेम में वाहक एवं लोक कल्याण कर्ता है। अर्हत् जैन धर्म में अर्हत् धर्मसंस्थापक के साथ-साथ साध्य रूप में साधना के आदर्श भी हैं। अर्हत् का अर्थ है-पूज्य, प्रशंसक। अर्हत् की अनेक पर्याये हैं यथाजिन, केवली, सर्वज्ञ, तीर्थङ्कर आदि। शक्रस्तव' में अर्हत् की अनेकानेक विशेषताएं इंगित की है। इस आधार पर अर्हत् संसार रूपी समुद्र के तारक, दुःख मोचक, धर्म संघ के संस्थापक कहे गये हैं। अर्हत् पद की प्राप्ति उच्च आध्यात्मिक साधना का प्रतिफल है। अर्हतत्त्व पद का वरण विशेष साधक ही कर सकते हैं, जबकि कैवल्य की प्राप्ति सर्व साधारण को भी हो सकती है। अर्हत्-तीर्थङ्कर नाम कर्म के उपार्जन हेतु समवायाङ्ग में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि विशिष्ट तप-साधना ही इस पद प्राप्ति में आवश्यक है। इस प्रकार जैन धर्म में जीवन्मुक्त अवस्था दो प्रकार की है1. अर्हत्-तीर्थङ्कर 2. सामान्य केवली अर्हत् के विशेष पुण्योदय से गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य तथा निर्वाण कल्याणक (महोत्सव) मनाये जाते हैं / वे संघ की स्थापना करते हैं। किन्तु सामान्यकेवली के उपर्युक्त कल्याण नहीं होते। जैन मान्यता के अनुसार भरत ऐरवत क्षेत्र में 24-24 तीर्थङ्कर होते हैं जब कि महाविदेह क्षेत्र में सदैव 20 तीर्थङ्कर विद्यमान रहते हैं। वे धर्म मार्ग के उपदेष्टा