________________ (101) अर्हत् की अवधारणा का दार्शनिक अवदान __ जैन धर्म दर्शन में अर्हत् की अवधारण के दर्शानिक अवदान का मूल्यांकन निम्न रूप से किया जा सकता है सर्वप्रथम अर्हत् की अवधारणा में यह मान्य किया गया है कि प्रत्येक भव्य आत्मा अर्हत् पद की क्षमता धारण करती है। प्रत्येक जीव अर्हत् पद प्राप्त कर सकता है। इससे इस अवधारणा में व्यक्तित्त्व की गरिमा पुष्ट होती है और उसे गौरव होता है कि वह अनन्त शक्ति सम्पन्न है एवं परमात्म शक्ति का प्राकट्य कर सकता है। इससे वह आत्मविकास की ओर अग्रसर होता है। दूसरा यह है कि अर्हत् पद किसी की कृपा प्रसादी नहीं है। अर्हत् बनाया नहीं जाता, वह स्वयं अपने सामर्थ्य से इस पद का वरण करता है। अर्हतत्त्व कोई याचित पद नहीं वरन् उपार्जित उपलब्धि है। इस प्रकार यह अवधारणा दैववाद, भाग्यवाद और कृपा के स्थान पुरुषार्थवाद का समर्थन करती है। जैन परंपरा में अर्हत् महावीर के जीवनवृत्त के उल्लेख में वर्णन है कि साधनाकाल में स्वयं इन्द्र उनकी सेवा में उपस्थित रहने की प्रार्थना करने पर, महावीर ने इन्द्र से कहा था कि अर्हत् स्ववीर्य अर्थात् स्वपुरुषार्थ से ही परमज्ञान एवं परमसाध्य को प्राप्त करते हैं। किसी की कृपा एवं सहयोग से नहीं। यही एक ऐसा तथ्य है जो व्यक्तित्व की गरिमा को उभारता है। अवतारवाद आदि में ईश्वर स्वामी होता है तथा व्यक्ति उसका सेवक / जबकि अर्हत् की अवधारणा में स्वयं के स्वामी होने का जीव सामर्थ्य प्रकट करता है। अवतारवाद में कृपा का तत्त्व प्रधान होता है। ईश्वरीय करूणा और कृपा ही अवतारवाद के मूलतत्त्व है जबकि अर्हत् की अवधारणा में स्वबल वीर्य-पुरुषार्थ का प्राधान्य है। संक्षेप में व्यक्तित्व की सर्वोपरिता एवं पुरुषार्थवाद के सिद्धान्त अर्हत् की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख दार्शनिक अवदान प्रस्तुत करता अवतार, अर्हत्, बुद्ध, ईश्वर, जीवन्मुक्त का तुलनात्मक अध्ययन भारतीय धर्मों में अवतार, ईश्वर, अर्हत्, बुद्ध, जीवन्मुक्त आदि की अवधारणाएं अपना अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। हिन्दु पुराणों में उपास्य के रूप में ईश्वर-अवतार को स्थान मिला, उसी प्रकार जैन धर्म में अर्हत् को बौद्ध धर्म में बुद्ध को तथा सांख्यदर्शन, योगदर्शन और वेदान्त में जीवन्मुक्त को उपास्य माना