________________ (106) भक्तों के लोककल्याण में सक्रिय भागीदार होते हैं / अर्हत् और बुद्ध की अपेक्षा अवतार की यह भिन्नता वास्तव में मूलरूप से अपने-अपने धर्मों की निवृत्तिमूलक एवं प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण को लेकर है। जैन-बौद्ध परंपरा निवृत्ति मूलक है, तो हिन्दु परंपरा मूलतः प्रवृत्ति मूलक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्हत्, बुद्ध, अवतार, ईश्वर, जीवन्मुक्त की अवधारणा में बहुत कुछ समानता है, तो कुछ मौलिक अन्तर भी है। जहाँ तक संख्या का प्रश्न है सभी परम्पराएं 24 की संख्या मान्य करती है। अवतार एवं बुद्ध की संख्या में दस एवं सात की संख्या, पच्चीस की संख्या उपलब्ध होती है किन्तु अर्हत की संख्या सर्वत्र 20/24 प्राप्त होती है। वैसे वेद, आगम तथा त्रिपिटकों में संख्या का उल्लेख दृष्टिगत नहीं होता। इससे यही माना जा सकता है यह परम्परा भी परवर्ती ही है एवं एक ही समय में पनपी है। क्योंकि पुराण, आगम एवं निकायों का समय ई.पू. दूसरी तीसरी शताब्दी विद्वानों ने मान्य किया है। इससे यही फलित होता है कि यह संख्या भी साथ-साथ ही प्रचलित हुई हो। वस्तुतः हिन्दू, जैन एवं बौद्ध परंपराएं एक ही परिवेश में पल्लवित हुई धोतित होती है। अतः भिन्नत्व होने पर भी एक-दूसरे के अत्यन्त निकट दृष्टिगत होती है। मूलभूत लक्ष्य में सभी परम्पराएँ एक-दूसरे से पृथक् नहीं दिखाई देती। इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन से यही प्रतीति होती है कि ये सभी परम्पराएं एक-दूसरे से कुछ न कुछ ग्रहण करती हुई है। prior