________________ (95) किया है। साथ-साथ जगत् का कर्ता, धर्ता, सब कुछ उसी के आधीन किया है। जैन दर्शन के अर्हत् एवं ईश्वर में साम्यता संभव नहीं है। इसके अनेक कारण है, क्योंकि जैन परंपरा के अर्हत् एवं ईश्वर में बहुत भिन्नता है। यहाँ अर्हत् जीवात्मा रूप से परमात्मा में परिणत होता है, वहाँ यह परिणमन नहीं है। ईश्वर आत्म स्वरूप होकर भी परमात्मा ही है। अर्हत् सशरीरी है तो ईश्वर अशरीरी है। अर्हत् कर्मों से मुक्त होता है तो ईश्वर के बंधन मुक्ति ही नहीं है। अर्हत् सर्वगुणसम्पन्न है तो ईश्वर में पाँच गुणों का प्राधान्य माना है। अर्हत् जगतकर्तृत्व से कुछ संबंध नहीं रखते, तो ईश्वर को जगत्कर्ता माना गया है। अर्हत् आत्मभावेन नित्य है तो ईश्वर सर्वदा नित्य ही है। जैन परंपरा इच्छादि विकारों का अर्हत् में होना स्वीकार नहीं करती, वहाँ ईश्वर में यह आत्मविशेष गुणों में से एक है। इच्छादि को विकार अर्थात् दोष मानकर उसका सर्वज्ञ में परिहार किया है। वस्तुतः प्रारम्भ में नैयायिकों में ईश्वर मात्र कर्मफल प्रदाता के रूप में ही मान्य किया गया था किन्तु उत्तरकालीन न्याय वैशेषिक ग्रन्थों में इस विषय का विस्तार होता गया। टीकाकारों में भी परस्पर मतभेद होने लगा। क्योंकि ईश्वर की संख्या के विषय में मतऐक्य नहीं है। भाष्यकार वात्स्यायन स्वयं ईश्वर की संख्या अनेक मानते दिखाई देते हैं, तो अन्य टीकाकार मात्र एक ही ईश्वर मान्य करते हैं। अर्हत् एवं ईश्वर को गुण साम्य की अपेक्षा से देखा जाय तो सर्वज्ञता, वीतरागता, उपदेष्टा, मोक्षामार्गप्रदाता, जगदुद्धारक, धर्मसंस्थापक, धर्मप्रवर्तक आदि है। राग-द्वेष का नाश होना, ज्ञाताद्रष्टा होना ये साम्यता यहाँ दृष्टिगत होती है। यहाँ एक बात पर ध्यान सहज ही चला जाता है कि ईश्वर को धर्मसंस्थापक, उपदेष्टा, आप्तकल्प्य आदि रूप में नैयायिक स्वीकार करते हैं तो यह संस्थापना, उपदेश आदि प्रकार करते हैं ? क्योंकि अर्हत् परमेष्ठी का यह कार्य स्पष्टतः दृष्टिगत होता है किन्तु ईश्वर के विषय में ऐसा समाधान पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती किसी भी नैयायिक ने नहीं किया। यद्यपि जैन परंपरा सर्वोच्च पद पर ईश्वर को आसीन किया है। सृजन से लेकर संहार तक के सभी कार्यों का उत्तरदायित्व ईश्वर पर ही छोड़कर स्वयं मुक्त होते दिखाई देते हैं।