________________ (82) स्थान-स्थान पर विभिन्न सुत्तों में अर्हत् के स्वरूप का वर्णन किया गया हैजो कृतकृत्य हो गया हो', क्षीणास्रव हो', अंतिम देह को धारण किया हो, जिनका मान प्रहीण हो गया हो', ग्रंथियाँ नष्ट हो चुकी हो', वह लोक में अनुत्सुक है विद्या और चरण से सम्पन्न, सुगति को प्राप्त, लोकविद्, अनुत्तर, सम्यक् संबुद्ध, अभय और दृढ है। सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा केवली ऋद्धिप्राप्त, चित्त की बातें जानने वाले हैं। प्रज्ञावान, भावितात्म, समाहित ध्यानरत, स्मृतिमान, सर्वशोक प्रक्षीण हैं / 2 वे पूजनीयों में पूज्य, सत्कार पात्रों में जो सत्कार के पात्र एवं आदरणीयों में आदरणीय हैं। इस प्रकार अनेकशः अनेकधा अर्हत् का विशद स्वरूप उपलब्ध होता है। जिस प्रकार जैन परंपरा में अर्हत् के अनेकशः विशेषण प्राप्त होते हैं / अर्हत्तीर्थङ्करों के विशेषणों का बहुतायत से उल्लेख किया है, उसी प्रकार यहाँ भी स्थल स्थल पर विवेचन विशेषण युक्त किया गया है। जहाँ जैन परंपरा तीर्थङ्कर को अर्हत् स्वीकार करती है, वहाँ बौद्ध परंपरा वह स्थान बुद्ध को प्रदान करती है। बौद्ध अर्हत् की कोटि जैन परंपरा में सामान्य केवली के सदृश है। सामान्य केवली भिक्षु-गृहस्थ सर्व हो सकते हैं, उसी प्रकार बौद्ध अर्हत् में यह मान्य किया है। हाँ बुद्ध को वह स्तर प्राप्त है। बुद्धत्व का अंगीकरण तीर्थङ्कर की कोटि में जा सकता है। अतः अर्हत् के तुल्य बुद्ध एवं सामान्य केवली के तुल्य अर्हत् मान्य किये जा सकते हैं / इसी भाँति बौद्ध परंपरा में भी संघ स्थापना, धर्म प्रवर्तन आदि कार्य बुद्ध 1. वही, अरहन्त सुत्त-१.३.५, मानत्थद्ध सुत्त 7.2.5 2. वही, महद्धनसुत्त 1.3.8. नन्दन सुत्त 2.2.4. मानत्थद्ध सुत्त 7.25 देवदहखण सुत्त 34.3.4.1 इच्छानङ्गल सुत्त 52.2.1 3. वही अरहन्त सुत्त 1.3.5 4. वही महद्धन सुत्त 1.3.8 5. वही महद्धन सुत्त 1.3.8 6. वही महद्धन सुत्त 1.3.8 7. सुसीम सुत्त (संयुक्त नि. 11.12) 8. धजग्ग सुत्त (संयुक्त नि. 11.1.3) 9. भारद्वाज सुत्त (सं. नि. 33.3.3-4) 10. अग्गिक सत (सं.नि.७.१.८) 11. (अपरादिट्टि सुत) (सं. नि. 6.14) 12. नन्दन सुत्त (सं. नि. 2.2.4) 13. देवादृत सुत्त (सं. नि. 7. 2. 3)