________________ (78) साथही मुक्तात्मा का अपनुरागमन मान्य किया है अर्थात् वह जन्म-मरण पुनः पुनः नहीं करती है। अनीश्वर वादी होने से जैन परंपरा अवतार की अवधारणा अवतरण अर्थ में स्वीकार नहीं करती। बौद्ध परंपरा में महायान संप्रदाय के विख्यात ग्रंथ सद्धर्भ पुण्डरीक,' में भी क्रमशः अवतीर्य, अवतारिता, जाता, उत्पन्न, प्रादुर्भाव आदि शब्द प्रयुक्त है। 'मंजुश्री मूल कल्प२ में अवतारयेत्, अवतारार्थ के अतिरिक्त समागत, आविष्ट शब्दों का उल्लेख है। बौद्ध गान ओ दोहा' में अवतरित, निर्माणकाय, दोहाकोश में 'बोधिसत्त्व अकम्पित अवतरे', 'कायाधारणा', 'सगुण पहसे" आदि प्रयोग मिलने पर भी इनका अर्थ हिन्दु परंपरा के अवतार के सदृश नहीं। ___ हिन्दु परंपरा में यह अवतरण विष्णु या ईश्वर के अवतरण को दर्शाती है जबकि जैन और बौद्ध परंपरा किसी विशिष्ट दैवीय शक्ति या ईश्वर को नहीं किन्तु बुद्ध या अर्हत् तीर्थङ्कर के मात्र जन्म को सूचित करती है उनके पुरागमन को नहीं। यहाँ अवतरण शब्द विकास का सूचक है। मूलतः जैन और बौद्ध परंपरा अवतारवाद के स्थान पर उत्तारवाद-उत्थान की सूचक है, जो कि आत्मीय गुणों का आरोह करती है। वैदिक परंपरा विशेष रूप से अवतारवाद पर अवलम्बित है। अवतरण का प्रयोजन____ अर्हत् तथा बुद्ध का जन्म इस धरा पर आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिए होता है। वे स्वयं आत्मगुणों का प्राकट्य साधना के द्वारा सम्पूर्ण कर्मक्षय के पश्चात् करते हैं। तत्पश्चात धर्मप्रवर्तन करके संघ की स्थापना करते हैं. जिन आत्मिक गुणों का आधान वे स्वयं करते हैं, उसी ज्योति को अन्य भव्यात्माओं में प्रज्जवलित करने का मार्ग निर्देशित करते हैं। क्या हिन्दु परंपरा में अवतार का अवतरण भी निश्चित् प्रयोजन पुरस्सर होताहै ? इस पर ही हम दृष्टिपात करें। वाल्मिकी रामायण में राम के जन्म का मुख्य प्रयोजन 'असुरों का विनाश है' इसी कारण उन्हें विष्णु का अवतार कहा गया है। महाभारत, महाकाव्य में भी अवतार का मुख्य उद्देश्य 'दैवी शक्ति की विजय' मान्य की है। महाभारत में विष्णु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर रणभूमि में दानवों और दैत्यों का संहार करते हुए प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि ईश्वर विभिन्न रूपों में, विविध योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं। 1. सद्धर्भ पुण्डरीक-पृ. 136, 301, 128, 125, 240 2. मंजुश्री कल्प-पृ. 502, 202, 216, 236, 237 3. बौद्धगान ओ दोहा पृ. 91, 93, 112 4. दोहाकोश- पृ. 94, 96, 159 5. वाल्मिकी रामायण 1.15.14-22, 1.1.18, 1.76.12, 3.12.33, 1.17.1-23 6. महाभारत वनपर्व 12.18-20, 28 : शांतिपर्व 347.79, अश्वमेधिकपर्व 54.16