________________ (77) अवतारी के साथ अवत्तर' शब्द अथर्ववेद में उपलब्ध है। जिसमें रक्षण का सारभूत अंश विद्यमान हो'' इस अर्थ में सायणाचार्य ने उल्लेख किया है। यजुर्वेद' में इसका 'उतरने' अर्थ में प्रयोग किया है। टीकाकार गृफिथ ने भी "Deseend upon rhe earth" अर्थात् उतरना अर्थ ही मान्य किया है। इस प्रकार वेदों में 1. संकट दूर करना 2. रक्षण के सारभूत अंश की विद्यमानता तथा 3. उतरना-इन तीन अर्थों में अवतार की संयोजना की गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण', मैत्रायणी संहिता में भी इन्हीं अर्थों की पुष्टि की गई है। व्याकरणाचार्य पाणिनी ने भी उतरने का अर्थ उल्लेख किया है।' जबकि गीता में अवतार की अपेक्षा 'आत्म सृजन और दिव्य जन्म' का प्रयोग हुआ है। वाल्मिकी रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण आदि पौराणिक साहित्य में अवतार शब्द 'विष्णु के शरीर धारण करने या भूतल पर अवतीर्ण होने से सम्बन्धित है। इसी प्रकार श्रीमद् भागवत में अवतार के स्थान पर सृजन, सृष्टि तथा जायमान अर्थ अधिकांशतः दृष्टिगत होते हैं। वास्तव में ईश्वर अशरीर है, किन्तु रक्षण हेतु, धर्म-अभ्युदय हेतु उनका भूतल पर अवतरण होता है। लक्ष्यपूर्ति के पश्चात् देहोत्सर्ग करके पुनः ईश्वरत्व को धारण कर लेते हैं। हिन्दु मान्यता के विपरीत जैन मान्यता में अवतरण शब्द संदर्भ प्राप्त होने पर भी अर्थ-भेद स्वीकार किया है। जैन साहित्य में भी अवतार शब्द के प्राकृत और अपभ्रंश रूप विद्यमान है। जैसे ग्रंथों में अवइण्णु'-अवत्तीर्ण हुए के साथ पयंडगउ' अर्थात् प्रकट शरीरा शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ इसका तात्पर्य भी अवतरण अर्थात् जन्म ग्रहण तो है ही, किन्तु इसे यहाँ 'अवतार' का पर्यायवाची मान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि जैन परंपरा ईश्वर के अवतरण को स्वीकार नहीं करती। 1. अथर्ववेद 18.3.5 2. यजुर्वेद 17.6 3. वही गृफिथ अनुवाद 4. तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.8.3.3 5. शतपथ ब्राह्मण 9.1.2.27 6. मैत्रायणी संहिता 2.10.1 7. पाणिनीय अष्टाध्यायी 3.3.120 8. गीता 4.6-9 9. वाल्मिकी रामायण 1.16.3, महाभारत 1.64.54, विष्णुपुराण 5.1.60-65 10. भागवत 1.3.5, 10.3.8 11. पउमचरिउ (स्वयंभू भाग-१,१.१६.५, हरिवंशपुराण 92.3) mm