________________ (75) अस्तित्व है या नहीं ?.यदि अन्य दार्शनिक इसकी अवधारणा स्वीकार करते हैं तो किस स्वरूप में ? जो अवधारणा जैन परंपरा स्वीकार करती है, अन्य दर्शनों में वह स्वरूप स्थिति है या नहीं ? अब इस प्रकरण में हम विभिन्न दार्शनिक परंपराओं के अन्तर्गत इस अवधारणा का तुलनात्मक अन्वेक्षण करेंगे। 'अर्हत्' पद दर्शन साहित्य में दो प्रकार से व्यवहत हुआ है-1. दिव्य/देव स्वरूप में 2. धर्म संस्थापक रूप में। ब्राह्मण परंपरान्तर्गत वैदिक साहित्य में अर्हत् पद प्रयुक्ति, प्रजापति, ब्रह्मा, अग्नि आदि को पूज्य भाव प्रगट करता है। तात्पर्य यह है कि वैदिक साहित्य में अर्हत् पद पूज्य भाव में आलेखित है, वह देवताओं के विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया गया है, वहाँ अन्य रूढ़ अर्थ नहीं किया गया है। जब कि जैन परंपरा गत अर्हत् विशिष्ट व्यक्तित्व को लिए हुए है। अर्हत् परमेष्ठी मानव देह धारी है, देव नहीं। यदि ब्राह्मण साहित्य में इस स्तर को देखना हो, तो धर्म संस्थापक के रूप में अवतारी पुरुषों का वहाँ ग्रहण किया गया है। हकीकत में ये अवतारी पुरुष भी दैवीय अंश ही है, वे ही जब इस धरा पर अधर्म को साम्राज्य छा जाता है, तब पुनः धर्मसंस्थापना हेतु शांति प्रवर्तन के लिए अवतीर्ण होते हैं। इस अपेक्षा से उनका अवतरण पुनः पुनः इस धरा पर होता है। जबकि जैन परंपरा मान्य अर्हत् मात्र एक बार ही तीर्थङ्करत्व को प्राप्त कर तद्भव मोक्षगामी होते हैं। __ ब्राह्मण परंपरा वेदानुगामी है। वेद-अनुगामी भी अनेक दर्शन पल्लवित हुए। उसमें मात्र मीमांसा दर्शन के अतिरिक्त अन्य वेदान्त, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग आदि दर्शनों ने अवतार को मान्य किया है। मीमांसा दर्शन तो सर्वज्ञता से ही इन्कार करता है। सर्वज्ञ कोई नहीं हो सकता यह उनका अत्याग्रह है। यद्यपि सर्वज्ञत्व के नास्तिपक्षकार मुख्यतया तीन है-चार्वाक, अज्ञानवादी एवं पूर्वमीमांसक। ___ चार्वाक इन्द्रियगम्य भौतिक लोकमात्र को मानता है। इसलिये उसके मत में अतीन्द्रिय आत्मा तथा उसकी शक्ति रूप सर्वज्ञत्व के लिए कोई स्थान ही नहीं। ___ अज्ञेयवादी का अभिप्राय आधुनिक वैज्ञानिकों की तरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान की भी एक अन्तिम सीमा होती है। ज्ञान कितना ही उच्च कक्षा का क्यों न हो, पर त्रैकालिक सभी स्थूल-सूक्ष्म भावों को पूर्ण रूप से जानने में स्वभाव से ही असमर्थ है। अर्थात् अन्त में कुछ न कुछ अज्ञेय रह ही जाता है। क्योंकि ज्ञान की शक्ति ही स्वभाव से परिमित है।