________________ (76) वेदवादी पूर्वमीमांसक आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करता है। वह अपौरूषेयवादी होने से वेद के अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भी अतीन्द्रिय ज्ञान को मान नहीं सकता। इसी एकमात्र अभिप्राय से उसने वेद निरपेक्ष साक्षात् सर्वज्ञ या धर्मज्ञ के अस्तित्व का विरोध किया। वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थक जानने वाले का निषेध नहीं किया। हिन्दु परम्परागत अवतारवाद और अर्हत् यद्यपि ब्राह्मण परंपरा मान्य वैदिक साहित्य में अर्हत् पद प्रयुक्ति बहलता से प्राप्य है, तथापि यह प्रयुक्ति मात्र पूजनीय''प्रशंसनीय' अर्थ में ही अभिव्यक्त होती है। यह पूज्य भाव दैवीय अंश के लिए ही निहित है, जो कि प्रजापति, अग्नि, इन्द्र आदि के विशेषण के रूप में याज्ञिक क्रियाकाण्डों के अवसर पर प्रगट किया गया है। 'धर्मप्रवर्तक'- धर्मसंस्थापक के रूप में ब्राह्मण साहित्य में अवतारी पुरुषोत्तम का उल्लेख प्राप्त होता है। वास्तव में यह अवतरण दैवीय अंशों का ही है। जब-जब धर्म की ग्लानि होती है (हानि होती है), अधर्म का साम्राज्यछा जाता है, तब-तब अधर्म का नाश करने के लिए, धर्म के अभ्युदय के लिए इन्द्र-विष्णु आदि दिव्य अंशों का मानव देह में अवतरण होता है। यह अवतरण ही अवतार के रूपान्तरण को प्राप्त हुआ है। अवतार अर्थात् ईश्वर/परमात्मा का अवतरण। अवतार और अवतारवाद : प्रयोग और अर्थ भारतीय वाङ्मय में अवतार शब्द प्रयोग प्राचीनकाल में होता रहा है। अब्' उपसर्गपूर्वक 'तृ' धातु में घञ्' प्रत्यय के योग से 'अवे तृस्त्रोघञ्' से निष्पन्न है। अवतार शब्द जो किसी उच्चस्थल से नीचे उतरना-अर्थ प्रकट करता है अर्थात् दिव्य शक्ति का दिव्यलोक से भूतल में उतरना अर्थ अभिव्यक्त करता है। वास्तव में यह अवतरण जन सामान्य सापेक्ष नहीं, वरन् ईश्वरीय अपेक्षित है। ईश्वर का स्वयं का ही शरीर धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त है। __ वैदिक साहित्य में अवतार शब्द स्पष्टतः उल्लिखित न होने पर भी अवतृ से निष्पन्न अवतारी और अवत्तर शब्द का प्रयोग किया गया है। सायणाचार्य ने भाष्य में इसका तात्पर्य 'संकट दूर करना' किया है। 1. मी. श्लोक वा. चोदना श्लो. 2.110 2. ऋग्वेद 6.3.3.5.2