________________ (72) एवं धर्मतत्त्वों का ह्रास होने लगता है, तब धर्म की रक्षा हेतु अवतार जन्म धारण करते हैं। उनका प्रयोजन दुष्टों का नाश एवं सज्जनों का त्राण है। इसी आधार पर वे धर्म की स्थापना करते हैं। - अर्हत् परमेष्ठी भी धर्म संघ की स्थापना तो करते हैं, किन्तु उनकी स्थापना प्रयोजन भिन्नता को लिए हुए हैं। वे लोक कल्याण एवं विश्वमैत्री के लिए धर्म की स्थापना करते हैं। जिसका माध्यम हिंसा के स्थान पर अहिंसा का प्रतिष्ठान है। वे जन-जन के हृदय में, अहिंसा की प्रतिष्ठा करके, विश्वमैत्री का प्रागट्य मनोमस्तिष्क में करते हैं। उनका उद्देश्य आसुरी तत्त्वों का नाश तो है, पर वह कर्त्तव्यनिष्ठ नाश न होकर व्यक्तित्व परक असुरता का नाश है। तात्पर्य यह है कि जन-जन के हृदयगत आसुरी विचारों का परिवर्तन कर देना। वह परिवर्तन अहिंसादि पंचमहाव्रतों के पालन द्वारा लोक कल्याण एवं विश्वमैत्री को स्थापित करने के लिए है। हिन्दु परम्परा में धर्म संस्थापना के लिए अवतारी पुरुषों का पृथ्वी पर आने का उल्लेख हमें अपने प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। ऋग्वेद में 'भू' शब्द से विष्णु का तीन पादों के क्रम का उल्लेख है, जिसके कारण उनको त्रिविक्रम कहा गया है। वहीं कुछ मन्त्रों में विष्णु को जगत् का रक्षक एवं समस्त धर्मों का धारक कहा गया है। महाकाव्य काल में वाल्मिकी जी ने भी विष्णु के अवतरण का मुख्य प्रयोजन देव शत्रु का वध करना कहा है। किन्तु मानस में गोस्वामीजी ने अवतार राम का मुख्य प्रयोजन विप्र, धेनु, सुर, सन्त आदि सभी के निमित्त असुरों का वध करना कहा है। महाभारत में विष्णु को कृष्ण के रूप में अवतार लेकर रणभूमि में दानवों और दैत्यों का संहार करते हुए प्रस्तुत किया। यहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आपने सहस्रों बार अवतार धारण करके अधर्म में रुचि रखने वाले असुरों का वध किया है। धर्म की रक्षा एवं स्थापना के लिए ईश्वर विविध योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं, यह मान्यता है।' 1. ऋग्वेद 1.22.16 2. वही 1.22.18 3. वाल्मिकी रामायाण-१.१५.२५. 4. रामचरितमानस 5. महाभारत आश्वमेधिक पर्व-५४.१३.१६ 6. वही वनपर्व 12.18-19,28 7. वही 84.16