________________ (54) पुनः व्याख्या करते हैं-' अथवा 'अरहंताणं' ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्भ्यः क्षीणरागात्' अर्थात् 'अरहंताणं' राग का क्षय होने से किसी भी पदार्थ पर आसक्ति नहीं होने से अरहंत भगवन्तों को नमस्कार हो। - भिन्न रूप से पुनः व्याख्या करते हैं - "अथवा अर हयद्भ्यःप्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषय-सम्पर्केपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजद्भ्यः इत्यर्थः"-अथवा 'अरहंताण' यानि अरहयद्भ्यः (रह धातु का त्याग देना अर्थ होता है) अर्थात् प्रकृष्ट राग तथा द्वेष के कारणभूत अनुक्रम से मनोहर तथा अमनोहर विषय का सम्पर्क होने पर भी वीतरागत्व आदि जो अपना स्वस्वभाव है, उसका त्याग नहीं करने वाले ऐसे अरहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो। अन्य पाठान्तरका भी सूरिदेव उल्लेख करते हैं-"अरुहंताण" मित्यपि पाठान्तरम्, तत्र अरोहद्भ्यः अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात्-अथवा 'अरहंताणं' के स्थान पर 'अरुहंताणं' पाठ भी मिलता है। 'जन्म नहीं लेते'- इस पाठ का तात्पर्य है। क्योंकि कर्म रूपी बीज क्षीण हो जाने से भगवान् पुनः जन्म नहीं लेते है। __इस प्रकार उपयुक्त व्याख्याएँ श्री अभयदेवसरिजी म. ने मात्र 'अरहंताणं' पद की दो है। जिसमें तीर्थङ्कर व केवली दोनों को अरहंत कहा जा सके, ऐसी समान व्याख्या भी है। पर पाठान्तर में जिन व्याख्याओं को आलेखित किया है, अधिकांश वे ही व्याख्याएँ केवली भगवन्त के साथ विशेष रूप से लागू होती है। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश, तथा जन्म, जरा मृत्यु के निवारण हो जाने से अपुनरागमन के अतिरिक्त किसी भी रहस्य का गुप्त न होना, सर्व परिग्रह का त्याग, राग का क्षय, आसक्ति न होना, वीतरागता से युक्त होना, इन सभी में समानता होने पर भी अष्ट महाप्रातिहार्य आदि गुणयुक्त होने से तीर्थङ्करत्व ही अर्हत् पद के उपयुक्त है। सामान्य केवली में इन गुणों का कोई स्थान नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि जब तीर्थङ्कर को ही अर्हत् पद के लिए उपयुक्त समझा जाये तो सामान्य केवली को पंच-पदों में से किस पद पर आरूढ करके नमस्कार किया जाय? सिद्ध पद तो केवली पर्याय में अर्थात् तेरहवें तथा चौदहवें 1. वही. 2. वही. 3. वही. 4. वहीं.