________________ (53) क्षीरोदक से 1008-1008 सुवर्ण, रत्न, मृत्तिका आदि कलशों द्वारा अभिषेक करना। दीक्षा के अवसर पर लोकान्तिक देवों द्वारा विनम्र प्रार्थना करना, महाभिनिष्क्रमण से पूर्व एक वर्ष तक 'संवत्सर दान' (वर्षीदान) आदि' अनेक गाथाएं तीर्थङ्कर प्रभु के यशोगान से जुड़ी हुई हैं। जब कि सामान्य केवली के साथ ऐसा एक भी प्रसंग नहीं होता। इससे यही ज्ञात होता है कि अर्हत् पद को तीर्थङ्कर मात्र के लिए ही उपयोग किया गया है। फिर किस अपेक्षा से केवली को अर्हत् कहा गया है? उस पर भी हम दृष्टिपात करें। भगवतीसूत्र का प्रारम्भ नमस्कार महामंत्र के मंगल से हुआ है। नमस्कार महामंत्र जिसे कि परमेष्ठी मंत्र तथा पंचमंगलमहाश्रुतस्कंध भी कहा जाता है, उसके टीकाकार अभयदेवसूरि ने इस पद पर विस्तृत वृत्ति/टीका रची हैं। णमो अरहंताण' में अरहन्त पद की व्याख्या करते हुए श्रीमद् अभदेवसूरि का कथन है कि -"अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः''२ अर्थात् देवों द्वारा रचित अशोकवृक्षादि (आठ) महाप्रातिहार्यरूप पूजा के जो योग्य हैं, वे अरहंत कहलाते हैं। इसी प्रकार का कथन आवश्यक नियुक्ति में है।' इसी 'अरहताणं' पद की व्याख्या अभयदेव सूरी दूसरी प्रकार से करते हैं "अथवा अविद्यमानं वा रह:-एकान्त रूपो देशः अन्तश्चः मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोन्तरः" तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ होने से भगवान् से जगत् की सर्व वस्तुओं में से कोई गुप्त नहीं होती। अतः भगवान् अरहोन्तर कहलाते हैं। "अथवा अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहो-पलक्षणभूतोन्तश्च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ता:" अर्थात् जिनके सर्व प्रकार का परिग्रह और जन्म जरा मृत्यु नहीं है, ऐसे अरथान्त अरहंत भगवान् को नमस्कार हो। 1. आव. चूर्णि पत्र 136-157., नाया. 8. 2. भगवतीवृत्ति 1.1 प्रका. जिनागम प्रकाशक सभाः बम्बई. अनु. संशो.- पं. बेचरदासजी 3. अरहंतिवंदणनमंसणाणि अरहंति पूयसक्कारं / सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुच्चंति। आव. नि. गा. 921 4. भगवती सूत्र वृत्ति 1.1 प्रका.-जिनागमप्रकाशक सभा. अनु. पं. बेचरदासजी 5. भ. वृ. 1.1 6. भ. वृ. 1.1