________________ (61) सामान्यतया जैनाचार्यों ने चार मूल अतिशयों का उल्लेख किया है - 1. ज्ञानातिशय 2. वचनातिशय 3. अपायापगमातिशय 4. पूजातिशय 1. ज्ञानातिशय केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता की उपलब्धि ही ज्ञानातिशय माना गया है। दूसरे शब्दों में अर्हत्/तीर्थङ्कर सर्वज्ञ होते हैं, वे सभी द्रव्यों की भूतकालिक, वर्तमानकालिक तथा भविष्यकालिक सभी पर्यायों के ज्ञाता होते हैं। अर्थात् वे त्रिकालज्ञ होते हैं। इस प्रकार अर्हत् का अनन्तज्ञान युक्त होना ही ज्ञानातिशय है। 2. वचनातिशय यथार्थ, अबाधित और अखण्डनीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अर्हत्/तीर्थङ्कर का वचनातिशय कहा गया है। इन वचनातिशय के प्रकारान्तर से पैंतीस अतिशय भी उपलक्षण से कहे गये हैं। 3. अपायापगमातिशय___समस्त मल एवं दोषों से रहित होना अपायापगमातिशय है। अर्हत् परमेष्ठी अट्ठारह दोषों से रहित होते हैं। 4. पूजातिशय देव, असुर, तिर्यञ्ज, मनुष्यों द्वारा पूजित होना अर्हत् परमेष्ठी का पूजातिशय है। जैन परम्परा अर्हत् को देव-देवेन्द्रों से भी पूजनीय मान्य करती है। - इस प्रकार मल में चार अतिशय है। अन्य जो 34 अतिशय समवायाङ्ग सत्र में वर्णित है, उन उत्तर भेदों को जैनाचार्यों ने तीन विभागों में विभक्त किया है क. सहज अतिशय ख. कर्मक्षयज अतिशय ग. देवकृत अतिशय श्वेताम्बर परंपरा 1. सहज अतिशय चार, 2. कर्मक्षयज अतिशय ग्यारह तथा 1. अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम्-अन्ययोगव्यवछेदिका। (हेमचन्द्र) 2. समवाय. 34