________________ (66) 7. यथाशक्ति तप-शक्ति छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास। 8. संघ साधु समाधिकरण-चतुर्विध संघ और विशेषकर साधुओं को समाधि पहुँचाना अर्थात् ऐसी क्रिया जिससे वे स्वस्थ रहें। 9. वैयावृत्त्यकरण-कोई भी गुणी यदि कठिनाई में पड़ जाय तो उस समय योग्य ढंग से उसकी कठिनाई दूर करने का प्रयास करना। ___10-13. चतुःभक्ति-अर्हत्, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र-इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना। ____ 14. आवश्यक परिहाणि-सामायिक आदि षड् आवश्यकों को, अनुष्ठान को भाव से न छोड़ना। 15. मोक्षमार्ग प्रभावना-अभिमान तजकर ज्ञानादि मोक्षमार्ग को जीवन में उतारना तथा दूसरों को उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना। 16. प्रवचन वात्सल्य-जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती हैं, वैसे ही जगत् के सब प्राणियों पर निष्काम स्नेह रखना। ___ इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में ये 16 बंध-हेतु अर्हत् पद प्राप्ति में आवश्यक कहे हैं। यदि हम दोनों बंधहेतुओं को तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो कुछ सामान्य ही अन्तर दिखाई पड़ता है। चतुःभक्ति में वहाँ7 पद भक्ति के लिए प्रयुक्त किये गये। इस प्रकार तीन पद ये विशेष हैं। इन दोनों ही हेतुओं में कुछ साम्यता के लिए हुए हैं तो कुछ नाम से वैषम्य। अर्थतः दोनों में कहीं न कही साम्यता दृष्टिगोचर हो ही जाती है। पर इतना तो अवश्य कहा ही जा सकता है कि इस पद की प्राप्ति के लिए विशिष्ट आराधना-साधना आवश्यक है। अपने आत्मोत्थान के लिए धर्म से अभिप्रेत अन्य अनुष्ठानादि अवश्य करणीय है। यहाँ दृष्टि आत्म सापेक्ष ही नहीं, वरन् परोपकार, पर सेवा, सापेक्ष है। परहितसापेक्ष आनंद ही आत्म-आराधना में विशेष बल देता है। कर्म क्षय में सहायक होता है। आत्मा जब परात्मलक्षी होता है, तभी स्वकार्य सिद्धि में अग्रसर हो पाता है। स्वार्थयुक्त दृष्टि संकीर्णता की द्योतक है तो परमार्थता परमपद प्राप्ति में हेतु बनते हैं। यह परमार्थ दृष्टि प्राणी मात्र को अपने संकुल में ले लेती है। तभी भावना उल्लसित होती है 'सवि जीव करूं शासन रसी' 1. तत्त्वार्थसूत्र 6.23 विवे. पं. सुखलालजी