________________ (60) कैवल्य कल्याणक अर्हत् परमेष्ठी दीक्षित होने के पश्चात् उग्र साधना में तल्लीन हो जाते हैं। परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करते हुए निःशेष कर्म राशि को ध्वंस करके केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान के उत्पन्न होने के पश्चात् उस समय भी स्वर्ग से देवगण-एवं इन्द्रगण आकर कैवल्य महोत्सव करते हैं। अष्ट प्रातिहार्य युक्त समवसरण (धर्म सभा-स्थल) की रचना करते हैं। रत्नजड़ित इस समवसरण की विशेषता यह है कि इसमें चाहे जितने लोग हो सर्व समा जाते हैं। अर्थात् उसकी विशेषता है कि वह जन समुदाय के अनुसार छोटा या बड़ा हो जाता है। इसमें बारह परिषद् इस प्रकार बैठती है कि कोई किसी के आड़े नहीं आता। सर्व को अर्हत् प्रभु के मुखारविन्द के दर्शन के साथ धर्मश्रवण का लाभ मिलता है। निर्वाण कल्याणक जिस समय अर्हत् परमेष्ठी का निर्वाण होता है (निधन होता है) उस समय उनका परिनिर्वाणोत्सव करने हेतु देव-देवेन्द्र मनुष्यलोक में आते हैं। उस समय उनके देह का अग्नि संस्कार आदि क्रिया कर्म देवेन्द्र मनुष्यों के साथ करते हैं। तथा उनके शेष अस्थि आदि को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देते हैं। इस प्रकार अर्हत् परमेष्ठी के पंचकल्याणक होते हैं। इन पांचों कल्याणकों में महोत्सव करने के लिए देव-देवेन्द्र मनुष्यों के साथ उपस्थित होते हैं। (स) अतिशय-वचनातिशय सामान्यतया अतिशय स्वयं ही अपना अर्थ प्रकट करता है। कुमारपालचरित्र में श्रेष्ठता', महापुराण में महिमा, प्रभाव', सुरसुंदरीचरित्र में बहुल, अत्यन्त', उपदेशरत्नाकर में चमत्कार, वाचस्पतिकोश में अतिरेक', प्रकर्षभाव के अर्थ को प्रगट करता है। अभिधान चिन्तामणि, में कथन है-जिसके कारण तीर्थङ्कर जगत् में श्रेष्ठ साबित होते हैं, वह अतिशय है। 1. कुमा. च. 1,5 2. महापुराण 3. सुरसुन्दरी चरिय 4. उप. रत्ना, 1,3 5. वाच. कोश 6. अभि. चिन्तामणि. 57-58