________________ (44) 2. अर्हत् का नियुक्ति व्युत्पत्ति परक अर्थ यद्यपि वेदों के स्वरूप-बोध के लिए उस पर यास्क महर्षि ने निरुक्त रचा है, तथापि यास्क महोदय ने इस अपने ग्रन्थ में अर्हत् पद का निर्वचन नहीं किया। यास्क. महाशय यद्यपि इसका निर्वचन नहीं करते, किन्तु अपने निघण्टु में अर्ह धातु का प्रयोग उन्होंने अवश्य किया है। इससे निरूक्त ग्रन्थ में व्युत्पत्ति प्राप्त न होने पर भी इतना तो सुनिश्चित कहा जा सकता है कि यास्क महोदय ने अर्ह धातु प्रयुक्त की थी। सर्वप्रथम इस पद की व्युत्पत्ति हमें महर्षि पाणिनी (ई. पू. 5 वीं शताब्दी) कृत व्याकरणशास्त्र में प्राप्त होती है। पाणिनी महोदय कृत 'अष्टाध्यायी 2 में अर्ह धातु की व्युत्पत्ति की है- 'अर्हः प्रशंसायाम्'। अर्थात् प्रशंसा अथवा प्रशंस्य अर्थ में इस धातु का प्रयोग किया गया है। उसके पश्चात् अर्हत् पद की नियुक्ति हमें आवश्यक सूत्र की नियुक्ति में उपलब्ध होती है। इसका निर्वचन करते कहा है "अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूअसक्कारं। सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुच्चंति।" यहाँ पर इस पद का अर्थ, वन्दन, नमस्कार, पूजा, सत्कार तथा सिद्धिगमन किया गया है। इस नियुक्ति का विशेषार्थ करते कहा है कि "देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा। अरिणो हंता रयं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति"।' तात्पर्य यह है कि देव, असुर और मनुष्यों से पूजित अर्थात् सुरोत्तम जो देवगणों से भी उत्तम है, उनकी पूजा। पश्चात् कथन है "जो अरियों (शत्रुओं का हंता है-नाश करने वाला है, वह भी अरिहन्त है। साथ ही जो रज अर्थात कर्मरज का भी हन्ता है, नष्ट करने वाला हो वह अरिहन्त कहलाता है।" वे अरि अर्थात् शत्रु कौन कौन से हैं, उसका स्पष्टीकरण करते हैंइंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे। एए अरिणो हंता अरिहंता तेण वुच्चंति / 1. निरुक्त 2.3, 1. दण्डमर्हति इति वा, दण्डेन सम्पद्यत इति वा। 2. अष्टाध्यायी 3.2.133 (3113) 3. आव. नि. 921 4. वही. 922 5. वही. 919