________________ (42) विशेषण-उपमा स्वरूप उपलब्ध हुई है। चौंतीस अतिशय एवं वाणी के पैंतीस अतिशयों के संकेत के साथ छत्र-चामर आदि प्रतिहार्यों का वर्णन भी इसमें किया गया है। अम्बड श्रावक की अर्हत् परमेष्ठी पर अविहड श्रद्धा का भी इसमें उल्लेख प्राप्त होता है। अस्तित्ववाद में अर्हत्-चक्रवर्ती का अस्तित्व है ही इसका भी वर्णन इस सूत्र में किया गया है। राजप्रश्नीय उपांग में उल्लिखित है कि अर्हत् प्रभु की पर्युपासना में देवगणों की उपस्थिति होना, उनका आचार है। अर्थात् अर्हत् प्रभु की पूजा देवों द्वारा भी होती है, यहाँ इसकी पुष्टि होती है। प्रज्ञापना उपांग सूत्र में ऋद्धिमान् की गणना में अर्हत् परमेष्ठी का सर्वाधिक होना स्वीकार किया है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग में अर्हत् परमेष्ठी के देव और मनुष्यों द्वारा जन्माभिषेक महोत्सव का विस्तृत निरूपण है। इस सूत्र में मंगलाचरण, 'नमो अरहंताण' से किया गया है। अर्हत् ऋषभ के पंचकल्याणकों के साथ उनके जीवनवृत्त को भी इसमें गूंथा गया है। इसमें भरत केवली का उल्लेख करने पर भी उनको अर्हत् पद से सुशोभित नहीं किया गया। प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत चतुःशरण प्रकीर्णक में अर्हत् परमेष्ठी का शरण ग्रहण करना ग्राह्य है तथा तदन्तर्गत स्वरूप-लक्षण एवं माहात्म्य का भी उल्लेख किया गया है। छेद सूत्रों में महानिशीथ सूत्र में इस अर्हत् पद की विवेचना नियुक्ति परक हुई है। विनयोपधान के अन्तर्गत आंबिल तप से इस पद की आराधना की गई है। अरहंत, अरूहंत एवं अरिहंत इन तीन प्रकार के अर्थों के साथ इसका सविस्तार निरूपण, उपदेश एवं स्थापना की गई है। कल्पसूत्र के अन्तर्गत तीर्थङ्कर-अर्हत् के जीवन वृत्त का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अर्हत् महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि तथा ऋषभदेव के जीवनचरित्र का सुन्दर निरूपण है। उनके गण, गणधर, साधु समुदाय एवं संघ व्यवस्था का विवेचन इस सूत्र में किया गया है। बृहत्कल्पसूत्र इस सूत्र में समवसरण (धर्मसभा) जो कि अर्हत् परमेष्ठी की धर्मदेशना हेतु