________________ (45) अर्थात् इंद्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग रूपी शत्रुओं को नाश करने वाला अरिहंत कहलाता है। पुनः शत्रुओं को उल्लेख है, अट्ठविहंपिय कम्मं अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं। तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति।' अर्थात् सर्व जीवों के अष्टविध कर्म शत्रुरूप हैं, जो इन अष्टकर्मों का हन्ता है, उसे अरिहन्त कहा जाता है। पाणिनी व्याकरण एवं आवश्यक नियुक्ति इन दोनों के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करने से यह विदित होता है कि पाणिनी अर्हधातु की प्रशंसा अर्थ में व्युत्पत्ति करते हैं, वहाँ आवश्यक सूत्र में अरहन्त की गई नियुक्ति में इसका स्थान पूजा परक, वंदन-नमस्कार अर्थमय हो गया है। अर्थघटना के विस्तार संकोच की ओर दृष्टिपात् करने पर जहाँ पाणिनी का व्युत्पत्तिपरक प्रशंसा अर्थ व्यापकता की ओर इंगित करता है। क्योंकि प्रशंसा गुणों की होती है। सर्व सामान्य गुण प्रशंसा अर्थ में ग्राह्य हो सकते हैं। वहाँ आवश्यक नियुक्ति में यह अर्थ पूजनीय, योग्यत्व के अर्थ संकुल में निबद्ध हो गया। प्रशंसा एवं पूजा यद्यपि सन्निहित गुणों की ही होती है। किन्तु इसमें भेद रेखा यह है कि प्रशंसा सर्वसामान्य की भी हो सकती है, किन्तु पूजनीयता अनूठे व्यक्तित्व को ही प्राप्त हो सकती है। पूजा सदैव श्रद्धा पर अवलम्बित होती है। प्रशंसा में आस्था के आयाम नहीं। निष्ठा के अभाव में प्रशंसा का स्रोत प्रवाहित हो सकता है। जबकि पूजा में निश्चल दृढ़ श्रद्धा अपेक्षित है। श्रद्धा के अभाव में वह पूजा नहीं, मात्र दंभ हो सकता है। इस प्रकार प्रशंसा की व्यापकता से अर्हत् का अर्थ संकोच पूजा तक सीमित हो गया। आवश्यक नियुक्ति में तो यह अर्थ आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा के स्तर पर भी जा पहुँचा। चूंकि शब्द अनेकार्थक होते हैं, अतः निर्वचन करते हुए सिद्धिगमन अर्थघटन भी किया गया। इस प्रकार महर्षि पाणिनी से नियुक्तिकार भद्रबाहू के (वि. छट्ठी शताब्दी) मध्य समय में अर्ह के अर्थ संयोजन में कुछ भिन्नत्व की झलक प्राप्त होती है। 1. वहीं. 919 2. न्यायावतार वार्तिक वृत्ति प्रस्ता. पृ. 103