________________ (43) देवगणों द्वारा निर्मित किया जाता है,की रचना का सविशेष वर्णन उपलब्ध होता चूलिका सूत्रान्तर्गत नंदीसूत्र में अर्हत् परमेष्ठी की स्तुति परक वर्णन मात्र उपलब्ध है तथा ज्ञानप्रकरण में केवली की सामान्य विवेचना हैं। मूलसूत्रों में उत्तराध्ययन सूत्र में विशेषतः भगवान् महावीर के साथ पार्श्व भगवान को भी अर्हत् पद से अलंकृत करके जिन, लोकपूजित, स्वयं सम्बुद्धता, सर्वज्ञ, धर्मतीर्थङ्कर आदि से भी सम्बोधित किया गया है। जीव तीर्थङ्कर नाम-कर्म किस प्रकार बांधता है? वैयावच्च से जीव तीर्थङ्कर नाम कर्म बांधता है, यह भी उल्लेख किया गयाहै। आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत उसका प्रारम्भ नमस्कार मंत्र से हुआ। तत्पश्चात् मंगलचतुष्क में सर्वप्रथम दृग्गोचर हुआ। द्वितीय आवश्यक लोगस्स (चतुर्विंशति स्तव) में स्पष्ट आलेखन है कि चौवीस तीर्थङ्कर-अर्हत् तथा केवली है। वर्तमान चौवीसी के नामोल्लेख के साथ साथ स्वरूप, स्तुति, गुणकीर्तन तथा माहात्म्य से भरपूर है। इस छोटे से सूत्र में अर्हत्-तीर्थङ्करों का विवरण गहनता से किया है। शक्रस्तव के साथ-साथ पंचम कायोत्सर्ग, अर्हत् चैत्य का भी उल्लेख किया गया है। इस सूत्र की नियुक्ति में अर्हत् परमेष्ठी पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। ऋषिभाषित, सूत्र एक ऐसी विशेषता लिए हुए है कि इसे समन्वय सूत्र या अपवाद सूत्र कहा जा सकता है, क्योंकि इस सूत्र में 45 ऋषियों का उल्लेख है। जो कि जैन, बौद्ध एवं वैदिक सम्प्रदाय से संबंधित है। इस सूत्र में सभी ऋषियों को अर्हत् पद से विभूषित किया है। मात्र अम्बड परिव्राजक को अर्हत् नहीं कहा गया है। एक यही सूत्र है जिसमें सब ऋषियों को अर्हत् कहा है। जब कि अन्य आगमग्रन्थों में सामान्य केवली गणधर आदि में से किसी को भी अर्हत नहीं कहा गया। इससे यह उद्भासित होता है आगम ग्रन्थों से पूर्व इसकी रचना हुई हो। वैसे नन्दी सूत्र एवं पाक्षिक सूत्र में इसकी गणना कालिक सूत्रों के अन्तर्गत की गई है। इस प्रकार आगमिक सर्वेक्षण से अर्हत् की अवधारणा का विवरण हमें प्राप्त होता है। अब हम अर्थ की अपेक्षा से अर्हत् परमेष्ठी की अवधारणा का अवलोकन करेंगे।