________________ ___ (48) श्रमण परम्परा की दोनों ही धाराओं में बौद्ध तथा जैन में इसे बुद्ध तथा अरहन्त स्वरूप में मान्य किया है। जैन धर्म के दोनों ही सम्प्रदाय दिगम्बर एवं श्वेताम्बर में समान रूप से अर्हन्त का स्वरूप मान्य किया है। अर्हत् की इतर पर्यायें___ अर्हत् की व्युत्पत्ति एवं नियुक्ति परक अर्थ अनेकशः किये गये हैं। किन्तु उनकी पर्यायों का कथन भी अपेक्षित है। जैनवाङ्मय का परिशीलन करने से विदित होता है कि "जैन परम्परानुसार यह मान्य किया जाता रहा है कि प्रत्येक तीर्थङ्कर के केवलज्ञान के पश्चात् इन्द्र के आदेश से आभियोग्य देव भगवान् की धर्मदेशना हेतु समवसरण (सभामण्डप) की रचना करते हैं। देव, मनुष्य, पशुपक्षी आदि तिर्यञ्च उस समवसरण में उपदेशामृत का पान करते हैं। उस समय नियमानुसार इन्द्र भी आकर अर्हत् प्रभु को नमस्कार करके एक हजार आठ नामों से उनकी स्तुति करता है। सम्भव है एक हजार आठ गुणों के उपलक्षण से यह स्तुति की जाती हो। क्योंकि तीर्थङ्करों के शरीर में जो 1008 लक्षण और व्यञ्जन होते हैं, जो कि सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शरीर के शुभ चिन्ह या सुलक्षण माने गये हैं, वे ही सम्भवतः एक हजार आठ नामों से स्तुति करने के आधार प्रतीत होते हैं। समय समय पर जैनाचार्यों के द्वारा भी इन एक हजार आठ नामों के आधार से उनके सहस्रनामों का गुम्फन अपने काव्य ग्रन्थों में सुन्दर रीति से किया गया है। जैन परम्परा के अतिरिक्त हिन्दु परम्परा में सहस्रनाम के स्तुतिपरक काव्य ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। यथा शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, गणेशसहस्रनाम आदि। इनमें से सर्वाधिक प्राचीन विष्णुसहस्रनाम है जो महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत है। संभवतः जैन सहस्रनाम स्तवन भी इसी भांति का नियोजन हो। ___ वर्तमान में अर्हत् परमेष्ठी के सहस्रनाम परक सात काव्यग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। जिसमें सर्वाधिक प्राचीन आ. सिद्धसेन दिवाकर (4-5 वीं शता.) का 'शक्रस्तव' है। उसके पश्चात् आचार्य जिनसेन (वि. 9 वीं शता.) ने जिनसहस्रनाम की रचना की। श्री हेमचन्द्राचार्य के अर्हन्नामसहस्रसमुच्चयं (12 वीं श.) नामक कृति उपलब्ध होती है। पं:आशाधर जी (13-14 वी.श.) की रचना भी 'जिनसहस्रनाम' से उपलब्ध है। उपा. विनय विजय जी म. (17-18 वी. श.) श्री जीवहर्षगणि तथा भट्टारक सकलकार्ति की 'जिनसहस्रनाम' रचनाएँ प्राप्त होती है। इस आधार 1. बृहदकल्प भाष्य-१ उद्देश्य 1177.