________________ (49) से यह कहा जा सकता है कि अर्हत् परमेष्ठी के सहस्र नामों का भी उल्लेख मिलता है। जहाँ श्री हेमचन्द्राचार्य ने अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय में सहस्रनामों से अर्हत् परमेष्ठी को अभिव्यजित किया, वहाँ अभिधान चिन्तामणि" (अभिधानचिन्तामणि स्वोपज्ञ वृत्ति. 24-25) में 25 अभिधानों का निरूपण किया है। हो सकता है इन 25 अभिधानों का विस्तृत रूप सहस्रनाम में किया हो अथवा सहस्र का संक्षिप्तिकरण 25 के अन्तर्गत कर दिया हो। पूर्वकथित इन पच्चीस को हम विकासक्रम के अनुसार वर्णित करें तो सर्वप्रथम है- 1. अभयद। ___ अर्थात् अभय को देने वाले। हेमचन्द्राचार्य ने अपनी स्वोपज्ञ टीका में इसका विवेचन किया है कि, सप्त भयों के प्रतिपक्षी भूत अर्थात् भयों का प्रतिपक्षी अभय है। जो कि आत्मा का विशेष स्वास्थ्य है, उसके प्रदाता 'अभयद' हैं। एवं निः श्रेयस धर्म की भूमिका स्वरूप उन गुणों के प्रकर्ष से अचिन्त्य शक्तियुक्त सर्वथा परमार्थ को देने वाले अभयद हैं। 2. क्षीणाष्टकर्म-ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों को क्षीण-नष्ट करने से क्षीणाष्टकर्मा हैं। 3. जिन, जिनेश्वर, वीतराग राग, द्वेष, मोह को जिन्होंने जीत लिया है, वे जिन कहलाते हैं। साथ ही उन जिनों के भी ईश्वर होने से जिनेश्वर कहलाते हैं। राग के नष्ट हो जाने से वीतराग भी उनको कहा जाता है। 4. सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, त्रिकालवित्___सर्व वस्तुओं के ज्ञाता, द्रष्टा होने से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहा जाता है तथा सर्वथा कर्मावरण के विलय होने पर केवल चैतन्य स्वरूप का आविर्भाव होने से केवली नाम से अभिहित किया जाता है। त्रिकाल के ज्ञाता हैं अतः त्रिकालविद् / 5. तीर्थङ्कर, तीर्थकर, भगवान, जगत्प्रभु, परमेष्ठी, अधीश्वर, देवाधिदेव संसार समुद्र से तैर गंये है अतः तीर्थङ्कर, प्रवचन के आधारस्तम्भ चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करने से तीर्थकर, जगत् का ऐश्वर्य अथवा ज्ञान होने से भगवान्, जगत् के प्रभु, परमपद में स्थित, जगत् में अधिष्ठित होने से अधीश्वर, तथा सुरेन्द्रादि देवों के देव होने से वे देवाधिदेव कहलाते हैं। 1. अभिधानचिन्तामणि स्रोपज्ञ वृत्ति. 24-25