________________ (37) दर्शन व बौद्ध दर्शन में अत्यन्त साम्यता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ जिन जिन गुणों का समावेश बुद्ध-अर्हत् में किया है, वे सभी तीर्थङ्कर अर्हत् में समानरूप से उपलब्ध होते है। इस साम्यता का कारण यह भी हो सकता है कि वर्द्धमान महावीर तथा तथागत गौतम बुद्ध दोनों समकालीन थे। उस समय की संस्कृति व धर्म की परस्पर एक दूसरे पर छाप पड़ना संभव है। जैन सम्मत अर्हत् अर्हत् विषयक प्ररूपणा आज जो जैन परम्परा में प्रचलित है, संभवतः अन्य परम्पराओं में इतनी विकसित नहीं। यद्यपि 'अर्हत्' शब्द देह को सभी परम्पराओं ने आत्मसात किया है, इसके बावजूद भी जैन सम्मत मान्यता सभी में प्रधान रही हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि ब्राह्मण परम्परा में ईश्वर, अवतारी पुरुष तथा अनेक देवताओं की प्रधानता हो गई। श्रमण परम्परा में बौद्ध सम्प्रदाय ने प्रथमतः बुद्ध तथा उसकी पश्चादवर्ती शाखाओं में बोधिसत्त्व को प्रमुखता दी। इस्लाम धर्म में पैगम्बर, पारसी धर्म में देवदूत जरथुस्त्र, यहूदीधर्म में परमेश्वर याहवेह तथा उनके प्रतिनिधि मोजेज आदि, ईसाई धर्म में प्रभु ईसा मसीह मान्य किये गये। किन्तु जैन परम्परा अद्यापि अपना परमाराध्य अर्हत् को स्वीकार करती है। यहाँ तक कि नित्य स्मरणीय नमस्कार महामंत्र में भी प्रथम नमस्कार अर्हत् को ही किया गया है। ___ जैन परम्परा अर्हत् स्वरूप स्थिति में किसी ईश्वर या किसी देवता विशेष को प्रस्थापित नहीं करती, वरन् मानव मात्र को ही नहीं, प्राणी मात्र को, प्रत्येक जीवात्मा को इस पद पर आरूढ होने का अधिकार प्रदान करती है। प्रत्येक आत्मा अपनी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में साधना द्वारा, इस पद की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। यह पद व्यक्तिनिष्ठ न होकर व्यक्ति की गुणवत्ता पर आधारित है। नाम, जाति, लिंग, से परे सम्प्रदायातीत है। अवतारी पुरुष की भांति अर्हत् पुनः पुनः अवतरित नहीं होते किन्तु अपने गुण प्रकर्ष से समाज में फैली हिंसा के ताण्डव के समक्ष उत्क्रान्ति लाने हेतु जन्म लेते हैं। वे अवतीर्ण नहीं होते वरन् आत्म जागृति के द्वारा अपने सत्कर्मों से जनकल्याण हेतु सत्य धर्म का प्रवर्तन करके समाज को सही राह बताते हैं। मानव स्थित अधिकार व कर्तव्यों की मर्यादा में स्वयं का जीवन यापन करते हुए दुःखों से मुक्त होने के लिए शाश्वत सुख के मार्ग को स्वयं जानकर, तदनुरूप आचरण करके, अविद्या-अज्ञानान्धकार